वैभव चंद्राकर की रिपोर्ट, A Revolutionary Sukhdev Raj: स्वतंत्रता दिवस पर जब पूरा देश अपने अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है, तब दुर्ग की धरती भी एक ऐसे गुमनाम लेकिन महान क्रांतिकारी की याद संजोए हुए है, जिनका जीवन संघर्ष, बलिदान और सेवा का अद्वितीय उदाहरण है। स्वर्गीय सुखदेव राज, जो चंद्रशेखर आजाद के निकटतम सहयोगी और भगत सिंह के समकालीन रहे, ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष अंडा गांव में कुष्ठ रोगियों की सेवा में बिताए।
प्रारंभिक शिक्षा और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य
सुखदेव राज का जन्म 7 दिसंबर 1907 को लाहौर (पंजाब) के खत्री परिवार में हुआ। उनका पैतृक गांव गुरुदासपुर जिले का दीनानगर था। प्रारंभिक शिक्षा दीनानगर में और इंटरमीडिएट व बीए की पढ़ाई लाहौर में हुई। कॉलेज के दौरान वे क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आए, जिन्होंने उन्हें भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद से मिलवाया। वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के सक्रिय सदस्य बने और आजादी के आंदोलन में 1500 दिनों तक जेल की सजा काटी। 27 फरवरी 1931 का दिन उनके जीवन का सबसे बड़ा मोड़ साबित हुआ। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में जब अंग्रेजों ने चंद्रशेखर आजाद को घेर लिया, तब सुखदेव राज उनके साथ मौजूद थे। आजाद ने उन्हें आदेश दिया कि वे वहां से निकल जाएं और आंदोलन को आगे बढ़ाएं। उसी दिन आजाद ने वीरगति पाई और सुखदेव राज उनके बलिदान के जीवित साक्षी बने।
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रामकृष्ण मिशन में सेवा कार्य और आचार्य विनोबा भावे से मुलाकात
आजादी के बाद सुखदेव राज ने कोलकाता के रामकृष्ण मिशन में सेवा कार्य शुरू किया। यहीं उनकी मुलाकात भूदान आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे से हुई। उन्होंने विनोबा भावे के समक्ष देश में सेवा कार्य करने की इच्छा जताई। विनोबा भावे के सुझाव पर 1963 में वे छत्तीसगढ़ के दुर्ग पहुंचे, जहां उस समय कुष्ठ रोगियों की स्थिति बेहद दयनीय थी। अपने मित्र की बेटी सरोजिनी नायकर के सहयोग से उन्होंने अंडा गांव में कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए आश्रम स्थापित किया और जीवनभर उनकी देखभाल में जुटे रहे।
उनके अनुभव सुनना किताबें पढ़ने से अधिक रोमांचक था
दुर्ग के इंदिरा मार्केट में रहते हुए वे प्रतिदिन अंडा जाकर रोगियों की सेवा करते थे। उनके साथी रहे समाजसेवी गुलबीर सिंह भाटिया बताते हैं – “वे हमारे बुक डिपो पर आते थे और भगत सिंह व आजाद के साथ बिताए दिनों की बातें करते थे। उनके अनुभव सुनना किताब पढ़ने से कहीं अधिक रोमांचक था।” सुखदेव राज कई ऐतिहासिक घटनाओं – जैसे काकोरी कांड, सांडर्स वध, और भगवतीचरण वोहरा की शहादत – के प्रत्यक्षदर्शी थे। भाटिया भावुक होकर कहते हैं, “एक बार उनका कंधा मेरे कंधे से लगा, तो लगा मानो आजाद का कंधा ही छू लिया हो।”
सुखदेव राज का योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए
5 जुलाई 1973 को अंडा गांव में सेवा करते-करते सुखदेव राज का निधन हो गया। 1976 में उनके आश्रम स्थल पर प्रतिमा स्थापित की गई, जिसका अनावरण तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामा चरण शुक्ल और भगत सिंह के भाई कर्तार सिंह ने किया। उनके साथी और पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन पर “ज्योति जगी” नामक पुस्तक भी लिखी थी। सांसद विजय बघेल कहते हैं – “सुखदेव राज जैसे गुमनाम क्रांतिकारियों का योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए। वे न केवल आजादी के सिपाही थे, बल्कि मानवता के सच्चे सेवक भी थे।” आज, स्वतंत्रता दिवस पर, दुर्ग के लोग न केवल तिरंगा फहरा रहे हैं, बल्कि सुखदेव राज जैसे उन अनदेखे नायकों को भी याद कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी देश की आजादी और मानव सेवा को समर्पित कर दी।