Sannyasi Symbolic Death Explained: हिंदू धर्म में संन्यास जीवन को मानव जीवन की सबसे ऊँची अवस्था माना गया है। जब कोई व्यक्ति सांसारिक मोह-माया और भौतिक जीवन को त्यागकर आत्मज्ञान की खोज में निकलता है, तो वह संन्यास ग्रहण करता है। इस प्रक्रिया के दौरान संन्यासी अपने पुराने जीवन से पूरी तरह अलग हो जाता है और इसे दर्शाने के लिए प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार किया जाता है। यह न केवल त्याग का प्रतीक है, बल्कि आध्यात्मिक जागृति और आत्ममुक्ति की ओर पहला कदम भी माना जाता है। अक्सर लोग यह जानने की कोशिश करते हैं कि संन्यासियों द्वारा संन्यास लेने से पहले खुद का प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार क्यों किया जाता है।
प्रतीकात्मक दाह संस्कार
संन्यासियों द्वारा किया जाने वाला प्रतीकात्मक दाह संस्कार यह दर्शाता है कि उन्होंने अपने शरीर, रिश्तों, इच्छाओं और सामाजिक जिम्मेदारियों से पूरी तरह दूरी बना ली है। उनके लिए भौतिक जीवन का अंत हो चुका है और अब उनका उद्देश्य केवल आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक उन्नति है।
अहंकार का त्याग और आत्मबोध
यह प्रक्रिया अहंकार के समाप्त होने का प्रतीक मानी जाती है। संन्यासी यह स्वीकार करते हैं कि वे केवल आत्मा हैं, नाम, पहचान और भौतिक उपलब्धियों से परे। शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अमर और शाश्वत है। यह संदेश इसी संस्कार के माध्यम से समाज और अनुयायियों तक पहुंचाया जाता है।
मृत्यु का अभ्यास और वैराग्य
जब संन्यासी अपने ही प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार को अंजाम देते हैं, तो यह मृत्यु का अभ्यास होता है। इससे वे जीवन की नश्वरता को समझ पाते हैं और मोह-माया से पूरी तरह अलग होकर वैराग्य अपना लेते हैं। यह उन्हें मृत्यु के भय से भी मुक्त करता है।
सांसारिक बंधनों से मुक्ति
यह संस्कार यह दर्शाता है कि संन्यासी ने परिवार और समाज के प्रति सभी जिम्मेदारियों का त्याग कर दिया है। अब वे किसी भी सांसारिक बंधन से बंधे नहीं हैं और पूरी तरह से आध्यात्मिक जीवन को समर्पित हो चुके हैं।
दीक्षा और संन्यासी जीवन
भारत में संन्यास ग्रहण करने से पहले विरक्त दीक्षा दी जाती है। इसी अवसर पर संन्यासी का प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार किया जाता है। इसके बाद उन्हें दंड (छड़ी) और कौपीन (कपड़े का टुकड़ा) प्रदान किया जाता है, जो तपस्या, सादगी और संयमित जीवन का प्रतीक होते हैं।
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