Pitru Paksha 2025: पितरों का श्राद्ध एक पवित्र कर्म है। पितृपक्ष में पितर सूक्ष्म स्वरूप में अपने वंशजों के पास जाते हैं और उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं। माना जाता है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष वाले पखवारे में वे पृथ्वी लोक पर आते हैं। अब ऐसे में निश्चित रूप से उनके वंशजों को चाहिए कि अपनी क्षमता और श्रद्धा के साथ उनका स्मरण करें, विभिन्न माध्यमों से उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करें।
पितामह भीष्म करते रहे मृत्यु का इंतजार
महाभारत के देवव्रत अर्थात कौरवों और पांडवों के पूर्वज भीष्म पितामह के बारे में तो सभी को पता है कि वो एक धर्मनिष्ठ और अपने काल के महानतम योद्धाओं में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान मिला हुआ था और इसी कारण वो कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में बाणों की शैय्या पर लेटकर अपने इच्छित समय का इंतजार करते रहे। दरअसल भीष्म पितामह ने महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किया और माघ मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को अनुकूल समय आने पर प्राणों का त्याग किया था। उनका अंतिम संस्कार द्वादशी के दिन किया गया जिसे धर्म ग्रंथों में भीष्म द्वादशी भी लिखा गया है। उन्होंने इस बात की जानकारी थी कि सूर्य के उत्तरायण होने पर शरीर त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है इस तरह कुल 58 दिनों तक भीष्म बाणों की शैय्या पर पड़े रहे और उचित समय पर वासुदेव श्री कृष्ण की उपस्थित में प्राण त्यागे थे। यह भी एक संयोग ही है कि उन्होंने महाभारत का पूरा युद्ध कौरव पक्ष के लिए लड़ा किंतु मृत्यु के समय कौरव पक्ष का कोई भी सदस्य मौजूद नहीं था क्योंकि कौरव पक्ष के सभी लोग युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। ऐसे में क्या प्राण त्यागने के बाद उनका शरीर यूं ही पड़ा रहा, नहीं ऐसा नहीं है, उनका अंतिम संस्कार और श्राद्ध कर्म पूरे रीति रिवाज से हुआ था।
इन 15 दिनों में बच्चों को पूर्वजों के बारे में बताएं
घरों के बड़े बुजुर्ग परिवार के सभी लोगों के प्रति स्नेह का भाव रखते हैं, ठीक उसी तरह से पूर्वजों की कीर्ति काया भी दृष्टि रखती है इसलिए उनके जीवन में किए गए संघर्षों, उपलब्धियों के बारे में भावी पीढ़ी के लोगों को अवगत कराना ही उनके प्रति सच्चा सम्मान है। यह एक प्रकार से उनके प्रति मानसिक श्राद्ध होगा। ऐसा करने से वे प्रसन्न होंगे क्योंकि अनिच्छा अथवा केवल दिखावे के लिए किए गए श्राद्ध का कोई फल नहीं मिलता है। पितृपक्ष वास्तव में पितरों के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने का पखवारा है. इन 15 दिनों में अपने पितरों के बारे में खोज करना, जानना और समझना चाहिए कि जिस परिवार के हम सदस्य हैं उसे बनाने और यश कीर्ति दिलाने में हमारे उन दिवंगत बुजुर्गों का कितना बड़ा योगदान रहा है।
वंश का कोई भी व्यक्ति कर सकता है श्राद्ध
कुछ लोगों की धारणा है कि पुत्र ही श्राद्ध कर्म कर सकता है इसलिए लोग संतान के रूप में पुत्र की कामना करते हैं कि मरने के बाद अंतिम संस्कार और पितृपक्ष में जल तर्पण करने वाला तो कोई होगा जो गलत है। सभी जानते हैं कि भीष्म पितामह ने जीवन भर अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी इसलिए उनका नाम भीष्म पड़ा था और आज भी किसी कठोर प्रतिज्ञा को भीष्म प्रतिज्ञा कहा जाता है। जब उन्होंने विवाह ही नहीं किया तो फिर उनके पुत्र होने का तो प्रश्न ही नहीं होता है। पुत्र न होने की स्थिति में भतीजा, पौत्र आदि भी अंतिम संस्कार और श्राद्ध कर्म कर सकते हैं।
भीष्म पितामह का श्राद्ध
पौराणिक ग्रंथ महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र के ऐतिहासिक युद्ध में कौरव पक्ष की ओर से भीष्म पितामह ही लड़े थे, देखने में लगता है कि वे कौरव पक्ष के साथ थे लेकिन वास्तव में उन्होंने अविवाहित रहने की भीष्म प्रतिज्ञा करने के साथ ही अपने पिता महाराज शांतनु को हस्तिनापुर सिंहासन की सुरक्षा में अपने प्राणों की भी परवाह न करने का वचन दिया था। वे हस्तिनापुर सिंहासन से बंधे थे और सिंहासन पर कौरवों के पिता धृतराष्ट्र विराजमान थे इसलिए उनके पक्ष से युद्ध किया लेकिन पांडव उन्हें बहुत ही प्रिय थे। मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए उन्होंने श्री कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश भी दिया था। सूर्य के उत्तरायण होने पर उन्होंने प्राण त्यागे तो पांडवों ने ही पूरे विधि विधान से उनका अंतिम संस्कार और श्राद्ध किया। वाराहपुराण में कहा गया है कि श्राद्ध तर्पण से जगत के पूज्यों की भी पूजा हो जाती है। सुमन्तु में श्राद्ध कर्म को सर्वश्रेष्ठ कर्म तो यम-स्मृति में कहा गया है कि जो श्राद्ध करता है अथवा उसकी सलाह देता है, उन सभी को श्राद्ध का फल मिलता है।
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