Tianjin: तियानजिन, चीन का तीसरा सबसे बड़ा और उत्तर चीन का सबसे खूबसूरत शहर है। यहाँ करीब 20 देशों के नेताओं का हुजूम इकठ्ठा हुआ है और सभी की निगाहें फिलहाल वहीँ टिकी है। कह सकते हैं भारत की भी, क्योंकि PM मोदी ने सात साल बाद चीन का दौरा किया है। तियानजिन शंघाई और बीजिंग के बाद चीन का तीसरा सबसे बड़ा नगर पालिका भी है, इसे प्राचीन चीन का पावर सेंटर भी कह सकते हैं। लेकिन दूर-दूर तक फैले इस शहर में सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण केंद्र और प्रमुख बंदरगाह भी है। यह शहर पीले सागर के उथले प्रवेश द्वार बो हाई से लगभग 35 मील की दूरी पर स्थित है। स्थानीय चीनी लोग इस शहर को जन्नत का किला या स्वर्ग की नदी भी कहते हैं। आइए जानते हैं क्यों कहा जाता है इस शहर को जन्नत का किला, क्या है इसके पीछे का इतिहास? जो अब यह शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के रूप में एक नया अध्याय लिखने जा रहा है।
तियानजिन को क्यों कहा जाता है जन्नत का किला?
तियानजिन का शाब्दिक अर्थ ‘जन्नत का किला’ होता है। चीन के लोग इसे जन्नत का किला भी कहते हैं। आपको बता दें कि 1206-1368 ई. के दौरान, जब युआन राजवंश का शासन था तब से जिया और हेई नदियों के संगम पर स्थित तियानजिन यातायात और व्यापार का केंद्र रहा है। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय व्यापारिक समुदाय के आगमन से बहुत पहले ही यह एक महानगरीय केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था।
किस लिए प्रसिद्ध है तिआनजिन?
अब आपके मन में ये सवाल उठ रहा होगा कि आखिर ये शहर इतना क्यों प्रसिद्द है? आपको बता दें कि तिआनजिन ने बीजिंग के लिए एक समुद्री गंतव्य और व्यावसायिक प्रवेश द्वार के रूप में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। इसने जातीय रूप से विविध और व्यावसायिक रूप से नवोन्मेषी आबादी के विकास को बढ़ावा दिया। यह शहर अपने बुने हुए हस्तशिल्प वस्तुओं, टेराकोटा मूर्तियों, हाथ से चित्रित लकड़ी के ब्लॉक प्रिंट और विभिन्न प्रकार के समुद्री भोजन के लिए प्रसिद्ध है। 11,760 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह शहर बड़े इस्पात कारखानों, भारी मशीनरी और जहाजों के निर्माण और मरम्मत के लिए जाना जाता है।
तिआनजिन का क्या रहा है इतिहास?
तिआनजिन का इतिहास भी बड़ा रोचक रहा है। जब 19वीं शताब्दी के मध्य में आर्थिक समृद्धि अस्थायी रूप से कम हो गई तब चीन के साथ व्यापार करने वाले यूरोपीय देश वाणिज्यिक और राजनयिक विशेषाधिकारों की अपनी माँगों पर अड़े रहे। तियानजिन (तिएंत्सिन) की संधियाँ 1858 में चीन के विरुद्ध द्वितीय अफीम युद्ध (1856-60) के दौरान ब्रिटिश, फ्रांसीसी और चीनी सेनाओं द्वारा हस्ताक्षरित की गई थीं।
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