Bihar Chunav 2025: बिहार में चुनाव प्रचार शुरू हो गया है. सबकी निगाहें प्रशांत किशोर और उनकी जनसुराज पार्टी पर टिकी हैं. माना जा रहा है कि किशोर की पार्टी दूसरी पार्टियों का खेल बिगाड़ सकती है. किशोर के लगातार बयानों से लगता है कि वे बिहार में भारी जीत हासिल कर सकते हैं.
कुछ लोगों का मानना है कि प्रशांत किशोर की रणनीति दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) की शुरुआती रणनीति से काफी मिलती-जुलती है. किशोर जहां बिहार में रोजगार, शिक्षा, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और जातिविहीन राजनीति के मुद्दों को उठा रहे हैं, वहीं केजरीवाल ने अन्ना हजारे के 2013 के आंदोलन की लहर पर सवार होकर दिल्ली में स्थापित पार्टियों (कांग्रेस और भाजपा) को कड़ी चुनौती दी और 2015 में 70 में से 28 सीटें जीतीं.
इसके अलावा, 2022 से अब तक, पीके बिहार के गांवों में 5,000 किलोमीटर पैदल यात्रा कर चुके हैं और नीतीश कुमार सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा चुके हैं. पीके ने दावा किया है कि उनकी पार्टी 2025 के चुनावों में 243 में से 200 से ज़्यादा सीटें जीतेगी. चलिए एक बार दोनों नेताओं की नीतियों पर नजर डाल लेते हैं. और जान लेते हैं कि क्या केजरीवाल के कदमों पर चलकर पीके बिहार का दंगल जीत पाएंगे?
बिहार और दिल्ली की सामाजिक-राजनीति में अंतर
सबसे पहले अगर हम दोनों राज्यों के सामाजिक-राजनीति में अंतर देखें तो दिल्ली में जाति की बजाय शहरी मध्यम वर्ग, प्रवासी मजदूर और भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन (इंडिया अगेंस्ट करप्शन) ने केजरीवाल को जबरदस्त सपोर्ट किया.
वहीं पर बिहार में जाति (यादव, कुशवाहा, मुस्लिम, दलित) का गणित चुनाव तय करता है. आधे से अधिक वोटर अपनी जाति के उम्मीदवार को प्राथमिकता देते हैं. पीके का ‘जाति भूलो, रोजगार चुनो’ नारा अच्छा लगता है, लेकिन जमीनी स्तर पर काम नहीं करता. बिहार में लालू-नीतीश-बीजेपी की बाइपोलर राजनीति है.
अगर हम बिहार की बात करें तो यहां पर वोटिंग का टाइम आते आते जातीय वर्चस्व की बात आ जाती है. किसी और जाति को हराने के लिए अपनी जाति के कैंडिडेट को वोट देना मजबूरी हो जाती है.
पीके और केजरीवाल की पृष्ठभूमि
दोनों नेताओं की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो केजरीवाल एक सामाजिक कार्यकर्ता थे और इसी के दम पर उन्होंने दिल्ली में “आम आदमी” की छवि बनाई और राष्ट्रीय स्तर पर अन्य दलों के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभरे.
दूसरी ओर, पीके एक चुनावी रणनीतिकार रहे हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी (2014), नीतीश कुमार (2015), केजरीवाल (2020) और ममता बनर्जी (2021) के लिए काम किया है. उन्होंने एक ऐसे “सलाहकार” की छवि बनाई है जो पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है. देखना यह है कि बिहार के लोग पीके की इस छवि को पसंद करते हैं या नहीं.
पार्टी की जनता तक पहुंच, जमीनी ताकत में कमी
अगर दोनों पार्टियों की ज़मीनी ताकत की बात करें, तो केजरीवाल ने दो साल के आंदोलन के बाद दिल्ली में एक मज़बूत संगठन खड़ा किया. दिल्ली में दस साल बाद भी, उन्हें अच्छी-खासी फंडिंग मिल रही है और उनके कार्यकर्ता सक्रिय हैं. 2013 में एक दौर ऐसा भी था जब दिल्ली की हर गली-मोहल्ले में छोटी-छोटी बातों पर भी आप कार्यकर्ता टोपी पहने नज़र आते थे.
हालांकि, पीके के जन सुराज के लिए फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है. इसकी बड़ी वजह बिहार और दिल्ली के क्षेत्रफल का अंतर है. दिल्ली बहुत छोटा और घनी आबादी वाला राज्य है, जबकि बिहार काफ़ी बड़ा राज्य है. एक्स पर एक यूज़र लिखते हैं कि पीके, पुष्पम प्रिया 2.0 हैं. ज़्यादा प्रचार, कम भीड़. कई सर्वेक्षणों में जन सुराज को 10 से 12% वोट मिलते दिख रहे हैं. ज़ाहिर है, जन सुराज कुछ सीटें तो जीत सकता है, लेकिन उसके किंगमेकर बनने की संभावना कम है.
पीके पास नहीं है ‘अन्ना’
ऐसा कहा जाता है कि केजरीवाल के राजनीति में आने में अन्ना हजारें का बड़ा रोल रहा है. जन लोकपाल आंदोलन की वजह से केजरीवाल को पूरे विश्व से सपोर्ट मिला. इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अमेरिका में 20 शहरों के सपोर्टरों को उन्होंने विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करके माहौल बनाया था. इसके अलावा देश के बड़े वकीलों, एक्टिविस्टों और टेक्नोक्रेट, पूर्व प्रशासनिक अफसरों का भी केजरीवाल को साथ मिला.
लेकिन वहीं पीके के पास ऐसा कोई बड़ा मूवमेंट नहीं है. हालांकि राहुल गांधी और तेजस्वी ने एसआईआर के खिलाफ आवाज उठाई . लेकिन उनके साथ पीके नजर नहीं आए. इसके अलावा पीके को फिलहाल ऐसे दिग्गजों से समर्थन भी नहीं मिल रहा है.
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बचकर खेल रहे हैं पीके
केजरीवाल की बात करें तो, वे अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही राज्य और केंद्र, दोनों सरकारों पर जुबानी हमले करते रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह तक, सभी उनके निशाने पर रहे हैं. पीके भी इसी तरह की राजनीति कर रहे हैं. वे उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी पर लगे हत्याकांड और अशोक चौधरी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का इस्तेमाल कर रहे हैं. हालांकि, प्रशांत किशोर अभी भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह का मुकाबला राहुल गांधी या तेजस्वी यादव के स्तर पर नहीं कर पाए हैं.

