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Bihar Election 2025: क्या इस बार बिहार में BJP बन पाएगी बड़ा ‘भाई’ क्या कहते हैं आंकड़े; यहां जानें सबकुछ

Bihar Election 2025 BJP Politics: नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करके सत्ता सुख भोगने वाली BJP आखिर क्यों बिहार में हर बार चूक जाती है और वह JDU का छोटा भाई बनने के लिए मजबूर हो जाती है.

By: JP Yadav | Last Updated: October 24, 2025 6:01:48 PM IST



Bihar Election 2025: 14 नवंबर, 2025 को जिस दिन देश प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की 125वीं जयंती मना रहा होगा, उसी रोज बिहार विधानसभा चुनाव 2025 (Bihar Chunav 2025) के नतीजे घोषित होंगे. राजनीतिक विशेषज्ञ भले ही चुनाव परिणाम को लेकर कोई भी दावे करें. लेकिन नतीजे क्या होंगे, इसके लिए 14 नवंबर, 2025 का इंतजार करना ही होगा. बिहार में इस बार अनुभवी नीतीश और युवा तेजस्वी के बीच भी मुकाबला है. एक ओर जहां 74 वर्ष के नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अपने राजनीतिक करियर के अंतिम पायदान पर हैं, जबकि राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव सिर्फ 35 वर्ष के हैं.  इस लिहाज से तेजस्वी अपने प्रतिद्वंद्वी नीतीश कुमार से आधे से भी कम उम्र के हैं. नीतीश कुमार पिछले 5 दशक से बिहार और केंद्र की राजनीति में सक्रिय हैं, जबकि तेजस्वी की कुल उम्र ही 35 वर्ष की है. नीतीश हों या फिर तेजस्वी या फिर भारतीय जनता पार्टी, यह चुनाव सभी के लिए अहम है. नीतीश जहां पिछले प्रदर्शन को दोहराना चाहेंगे तो BJP सर्वाधिक सीटें जीतकर JDU पर दबाव बनाना चाहेगी कि सीएम का पद उसे मिले. वहीं, तेजस्वी यादव अपने प्रदर्शन से यह भी साबित करना चाहेंगे कि जंगलराज (लालू राज) की बातें पुरानी हैं और वह युवा जोश के साथ बतौर सीएम बिहार की सेवा करने के लिए तैयार हैं. इस स्टोरी में हम जानेंगे सभी प्रमुख राजनीतिक दलों की ताकत, कमजोरी और जीत की संभावना. 

BJP के लिए इस बार अलग है विधानसभा चुनाव (assembly elections different for BJP this time)

उत्तर भारत के करीब-करीब सभी राज्यों में सरकार बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी (Bhartiya Janta Parth) बिहार में 3 दशकों से चूक रही है. एक दौर में सिर्फ कुलीन वर्ग की पार्टी मानी जाने वाली BJP ने तेजी से देशभर में अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों को अपने साथ जोड़ा है. इसका असर यह हुआ कि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में वर्ष 2014 में इतिहास बदलते हुए BJP अपने दम पर केंद्र की सत्ता तक पहुंची. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में BJP ने 30 सालों का रिकॉर्ड तोड़ते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 283 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इस चुनाव में BJP गठबंधन ने कुल 336 सीटें जीती थीं. इसके 3 साल बाद वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में BJP का कई सालों का वनवास खत्म हुआ. इसके बाद पूर्वोत्तर के राज्यों में भी BJP को सत्ता सुख मिला. फिर साल 2025 की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव में BJP ने दिल्ली में भी सत्ता पा ली. अब राजनीतिक विशेषज्ञों के साथ-साथ सबकी नजरें बिहार विधानसभा चुनाव 2025 पर है. इस बार BJP बिहार में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कर रही है. राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि अगर BJP ने जनता दल यू से अधिक सीटें जीतीं तो वह मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी जरूर करेगी. ऐसे में नीतीश कुमार भी नैतिकता के आधार पर BJP की बात मानने के लिए विवश हो सकते हैं. इसके इतर सवाल यह है कि BJP आखिर अपने दम पर बिहार में सत्ता में क्यों नहीं आ सकती है, जबकि राष्ट्रीय जनता दल यह काम एक-दो नहीं बल्कि कई बार कर चुकी है. 

बिहार में जाति है कि जाती नहीं (Casteism is prevalent in Bihar)

देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी जाति की राजनीति चुनावों के दौरान हावी रहती है. लोकसभा चुनाव में हो सकता है इसका असर कम रहता हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में जाति का नशा सभी के सिर चढ़कर बोलता है. ऐसा कहा जाता है कि देश की आजादी के कुछ वर्षों के बाद जहां भी कारखाने थे और मजदूरों की समस्याएं थीं वहां कम्यूनिस्ट पार्टियों ने अपनी राजनीतिक पैठ गहरी की तो भारत के बंटवारे के बाद देश में जहां-जहां हिंदू शरणार्थी बसे वहां भारतीय जनसंघ (बीजेएस) ने अपना प्रभाव बढ़ाया. बिहार की वर्तमान राजनीति 1950 और 1960 के दशक की कहावत का सटीक सार पेश करती है. यह किसी हद तक सच भी है. देश की आजादी के साथ ही बिहार में भी अन्य राज्यों की तरह कांग्रेस सत्ता में आई और कई सालों तक सत्ता सुख भोगा. 1970 के दशक में बेरोजगारी के साथ भूमिहीन और भूमिहार की समस्या गहरा गई. 1974 में जेपी आंदोलन ने बिहार में कांग्रेस को कमजोर तो किया, लेकिन वह 1990 में सत्ता में रही. यह अलग बात है कि इससे भी पहले कर्पूरी ठाकुर का बिहार में उभार हो गया था. बतौर सीएम रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने ही वर्ष 1978 में सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 26% आरक्षण लागू किया था. उन्होंने सभी छात्रों के लिए मैट्रिक तक शिक्षा मुफ्त कर दी. बिहार में कांग्रेस की जमीन काफी मजबूत थी, इसलिए डॉ जगन्नाथ मिश्रा के नेतृत्व में आखिरी बार 1989 में कांग्रेस की सरकार बनी थी. इससे भी पहले डॉ. जगन्नाथ मिश्रा 1975 से 1977, 1980 से 1983 और 1989 से 1990 तक मुख्यमंत्री रहे और राज्य में कांग्रेस का शासन रहा. इसके बाद कांग्रेस कमजोर हुई तो भारतीय जनता पार्टी ने कमंडल की राजनीति के सहारे बिहार में सत्ता पाने की असफल कोशिश की. उत्तर प्रदेश में कमंडल ने BJP को सत्ता दिलाई तो बिहार में वह चारों खाने चित हो गई. कांग्रेस की जगह लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने ले ली.

BJP के पक्ष में नहीं जातीय गणित (Caste arithmetic not in BJP’s favor)

1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में मंडल और कमंडल की एंट्री हुई. राम मंदिर आंदोलन के साथ BJP का तेजी से उभार हुआ. राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में BJP अपने दम पर सत्ता हासिल कर ले गई, लेकिन बिहार में वह कमाल नहीं कर पाई, लेकिन लालू प्रसाद यादव ने जाति की राजनीति को पूरी तरह से काबू कर लिया. सामाजिक न्याय की लड़ाई भी तेज हो गई थी. बिहार में राम मंदिर आंदोलन का प्रभाव तो था, लेकिन जातीय अस्मिता का भाव लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ों और दलितों के दिलों में जगा दिया था. लालू ने एक तरह से अपनी राजनीति वहीं से शुरू की जहां से कर्पूरी ठाकुर ने छोड़ी थी. लालू प्रसाद ने करीब-करीब सभी विधानसभा चुनावों ने विकास या काम के नाम पर शायद ही वोट मांगा. उन्होंने अपने भाषणों में सामाजिक न्याय की बात की. 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने और कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी बनी. धीरे-धीरे जगन्नाथ मिश्रा का प्रभाव कांग्रेस पार्टी में कम होने लगा. इसके बाद जगन्नाथ मिश्रा ने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई.  इसके बाद लालू ने बिहार में कांग्रेस का नहीं बल्कि BJP का विरोध करना शुरू कर दिया. लालू सामाजिक न्याय को लेकर लड़ाई लड़ने वाले बिहार के मसीहा बन चुके थे. इसका असर यह रहा कि बिहार में BJP के कमंडल का वह जादू नहीं चल पाया जो यूपी में लोगों को सिर चढ़कर बोला. बिहार में जातीय गणित की बात करें तो पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 27.12 प्रतिशत है. इसमें यादव प्रमुख जाति है. इसके बाद अति पिछड़ा वर्ग का हिस्सा 36.01 के आसपास है. वहीं, अनुसूचित जाति की आबादी 19.65 प्रतिशत और  अनुसूचित जनजाति की आबादी सिर्फ 1.68 प्रतिशत है.  वहीं, अनारक्षित वर्ग की आबादी करीब 15.52 प्रतिशत है. इनमें ब्राह्मण, भूमिहार, वैश्य, ठाकुर समेत अन्य उच्च वर्ग की जातियां शामिल हैं.  ऐसे में जातीय गणित के हिसाब से BJP पिछड़ जाती है, लेकिन बिहार में आज भी भारतीय जनता पार्टी को अगड़ों की पार्टी माना जाता है. BJP ने इससे पीछा छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन यह जग जाहिर है इसलिए पिछड़ों की कुछ जातियां BJP से विधानसभा चुनाव के दौरान छिटक जाती हैं. 

गठबंधन के दौर में BJP कर रही साथी दलों से समझौते (BJP coalition era)

जातीय गणित के लिहाज से BJP को पता है कि वह अकेले दम पर सत्ता में नहीं आ सकती है, इसलिए वह 2 दशकों से गठबंधन करके बिहार में सत्ता में आने की कोशिश में है और कामयाब भी रही है. सत्ता में तो वह है, लेकिन बड़े भाई की भूमिका अब तक उसे नहीं मिली है. दुनिया की सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी को नीतीश कुमार के सामने झुकता ही पड़ता है. नीतीश भी लालू प्रसाद  यादव का खौफ दिखाकर एक तरह से BJP का कई सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं. यही वजह है कि देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने के बावजूद BJP को पूरे बिहार में अपनी पकड़ बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. राजनीति के जानकार भी मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी 20 से अधिक वर्षों से नीतीश पर निर्भर है. शाहाबाद (भोजपुर, रोहतास, कैमूर और बक्सर) और मगध (औरंगाबाद, गया, जहानाबाद, अरवल) क्षेत्र समाजवादी और वामपंथी आंदोलनों के लिए जाने जाते हैं. BJP यहां पर कमजोर है. यही वजह है कि यहां BJP 2020 के विधानसभा चुनावों में 21 में से दो सीटें जीते थी. यहां पर पिछले साल के लोकसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं मिली. यह बताता है कि BJP के लिए अभी संपूर्ण बिहार अभी दूर है. वहीं, BJP के सहयोगी नीतीश अभी भी कोसी बेल्ट (सहरसा, सुपौल और मधेपुरा) में प्रभावशाली हैं, जबकि (राजद प्रमुख) लालू प्रसाद अपने मूल (मुस्लिम-यादव) आधार को बनाए हुए हैं. बिहार के राजनीतिक हालात को देखते हुए भाजपा को राज्य में सत्ता साझा करने के लिए अभी भी सहयोगियों की जरूरत है. यह बात दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेतृत्व को भी पता है. 

बिहार में 1962 में जीती थी BJP पहली बार (BJP won in Bihar for the first time in 1962)

एक दौर वह भी था जब BJP राजनीतिक रूप से अछूत मानी जाती है. दरअसल, भारतीय जनसंघ 1952 और 1957 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत पाई. इसने पहली बार 1962 के विधानसभा चुनावों में सफलता का स्वाद चखा जब 319 सदस्यीय सदन में तीन सीटें – सीवान (जनार्दन तिवारी), मुंगेर (जगदंबी प्रसाद यादव) और नवादा (गौरीशंकर केसरी)  जीतीं. इस दौर में प्रखर वक्ता यादव ने विनोदानंद झा और केबी सहाय के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकारों की तीखी आलोचना करके अपनी पहचान बनाई. 1967 और 1972 के बीच बिहार के अशांत कांग्रेस-विरोधी दौर में जिसमें 7 मुख्यमंत्री बने. वर्ष 1969 के मध्यावधि चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 34 सीटें और 1972 में 25 सीटें जीतीं.

कर्पूरी ठाकुर का है अहम योगदान (Karpoori Thakur has an important contribution)

जेपी आंदोलन के बाद समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (Socialist leader Jayaprakash Narayan) ने भारतीय जनसंघ, ​​चरण सिंह के भारतीय लोकदल, समाजवादी संगठनों और अन्य को एकजुट करके जनता पार्टी बनाई. इस पार्टी ने 1977 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में 325 में से 214 सीटें जीतकर कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया. कैलाशपति मिश्रा और ठाकुर प्रसाद जैसे पूर्व भारतीय जनसंघ के दिग्गज मंत्री बने. वर्ष 1980 के चुनावों में  BJP के रूप में उभरी भारतीय जनसंघ को लगातार तीन चुनावों (1980: 21 सीटें, 1985: 16 सीटें, और 1990: 30 सीटें) में कांग्रेस के प्रभुत्व में आने के कारण अपनी स्थिति को कमजोर करना पड़ा. इसके बाद 1990 और 2000 के बीच लालू प्रसाद के समाजवादी उभार ने इसे फीका कर दिया और कई सालों तक लालू राज चला.

नीतीश का मिला साथ पर छोटा भाई बनी BJP (Nitish younger brother of BJP)

नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करने के बाद ही BJP को लगा कि वह राष्ट्रीय जनता दल को चुनौती दे सकती है. ऐसा हुआ भी, लेकिन BJP को इसका फायदा नहीं मिला. वर्ष 2000 में NDA के पास बहुमत नहीं था, फिर भी उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया. नीतीश ने केवल दो मंत्रियों – सुशील कुमार मोदी और पशुपति कुमार पारस – के साथ शपथ ली. यह अलग बात है कि संख्याबल की कमी के कारण सरकार 7 दिनों के भीतर ही गिर गई. नीतीश कुमार इस्ताफे देना पड़ा. उधर, एक बार फिर राबड़ी देवी की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी का रास्ता साफ हो गया. वह बिहार की सीएम बनी भीं. 

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