Mughal Emperor: दिवाली एक ऐसा त्योहार है जिसे रौशनी और खुशियों का प्रतीक माना जाता है. वहीं भारत में दिवाली सिर्फ़ एक त्यौहार नहीं, बल्कि प्रकाश, उत्साह और परंपराओं का संगम है. दीपों की चमक और आतिशबाज़ी के बिना यह त्यौहार अधूरा है. लेकिन, यह सवाल हमेशा से ही कौतूहल का विषय रहा है कि पटाखों का इस्तेमाल दिवाली का हिस्सा कब और कैसे बना. आज हम आपको इस खबर में यही बताने वाले हैं.
कहां से हुई पटाखों की शुरुआत
इतिहासकारों के मुताबिक, भारत में पटाखों के शुरुआती निशान मुगल काल से मिलते हैं. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि बारूद बनाने के घटकों का ज्ञान भारत में करीब 300 ईसा पूर्व से ही मौजूद था. जानकारी के मुताबिक द हेरिटेज लैब की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पटाखों की शुरुआत चीन में हुई थी, जहां सबसे पहले बारूद का प्रयोग हुआ.
युद्ध में इस्तेमाल किए जाते थे पटाखें
चीन में, बारूद, शोरा, गंधक और चारकोल को मिलाकर पटाखे बनाए जाते थे. इन सामग्रियों का उल्लेख दूसरी शताब्दी ईस्वी के “तीनों के संबंध की पुस्तक” नामक दस्तावेज़ में मिलता है. ऐसा माना जाता है कि शोरा और गंधक के इस्तेमाल का उल्लेख चीन में पहली शताब्दी ईस्वी से ही मिलता था.भारत में बारूद का प्रयोग आठवीं शताब्दी से होता आ रहा है. संस्कृत ग्रंथ वैशम्पायन की नीतिप्रकाशिका में ऐसे पदार्थों का उल्लेख मिलता है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र (300 ईसा पूर्व – 300 ईस्वी) में भी शोरा का उल्लेख “अग्निचूर्ण” के रूप में मिलता है. हालाँकि, उस समय इसका प्रयोग मुख्यतः युद्ध में होता था, उत्सवों में नहीं.
मुगलकाल में शुरू हुआ पटाखों का इस्तेमाल
भारत में शादियों और त्योहारों पर आतिशबाज़ी का इस्तेमाल 15वीं सदी से आम हो गया. मुग़ल चित्रकलाओं में इसका ज़िक्र मिलता है. शाहजहाँ के बेटे दारा शिकोह (1633) की शादी में भी खूब आतिशबाजी हुई थी, इतिहासकारों का मानना है कि दिवाली जैसे त्योहारों पर पटाखों का इस्तेमाल भी इसी काल में शुरू हुआ था. 17वीं शताब्दी में, बीजापुर के आदिल शाह ने अपनी शादी में सिर्फ़ पटाखों पर ही 80,000 रुपये खर्च कर दिए थे, जो उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है.
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