बिहार की राजनीति में आज एक अजीब-सी गूंज है. पुरानी विरासत की पकड़ भी मजबूत है और नई पीढ़ी की उम्मीदें भी बेक़रार. इसी दोराहे पर खड़े हैं तेजस्वी यादव. एक तरफ़ पिता लालू यादव की सियासी विरासत… दूसरी तरफ़ 58% युवा आबादी की उम्मीदें. लेकिन क्या हर चुनाव में यही विरासत उनके पाँव की ज़ंजीर बन जाती है? 2025 के चुनावों ने एक बार फिर यही सवाल तेज़ कर दिया है. क्या तेजस्वी वाकई नई राजनीति की राह पकड़ पाए हैं, या फिर वो भी उसी पुराने ढर्रे की अनदेखी गिरफ्त में हैं?
विरासत और नई राजनीति के बीच फंसे तेजस्वी
एक ओर, तेजस्वी यादव-प्रभुत्व वाले मूल वोट बैंक को आकर्षित करना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर, वह नई पीढ़ी को आशा का संदेश देना चाहते हैं। हालांकि, इन संदेशों का उल्टा असर होता है। जहाँ उनके पिता की विरासत उन्हें एक मज़बूत जातीय आधार देती है, वहीं यही मूल वोट बैंक उनके व्यापक युवा समर्थन हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है।
2020 में तेजस्वी का सबसे मज़बूत मौका क्यों हाथ से निकल गया
साल 2020 में कोरोना काल के दौरान हुए बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव को एक नए और युवा नेता के तौर पर स्थापित करने के लिए बड़ा मौका मिला था. कोरोना, प्रवासी संकट और NDA के अंदर चिराग पासवान की बगावत ने 2020 में राजनीतिक जमीन सेट करके दी थी लेकिन तेजस्वी वो मौका नहीं भूना पाए. हालाँकि उन्होंने लालू प्रसाद यादव की सार्वजनिक छवि से खुद को अलग किया और युवाओं को रोज़गार के वादों से आकर्षित किया. लेकिन नीतीश और मोदी ने लोगों को 1990 के दशक के “जंगल राज” के दिनों की याद दिला दी, जब लड़कियों को डर के मारे घरों से दूर रखा जाता था और शाम होते ही लोग अपने घरों में बंद हो जाते थे. नतीजतन, दूसरे और तीसरे चरण में गैर-यादव मतदाता एनडीए की ओर चले गए और तेजस्वी यादव जीत से फिर चूक गए. तेजस्वी चुनौती पेश करने में तो मज़बूत दिखे, लेकिन विश्वास जीतने में नाकाम रहे. इसकी वजह वही विरासत थी. 2025 में भी यही स्थिति दोहराई गई.
2025 के चुनाव और ‘विरासत का जाल
2025 के विधानसभा चुनावों में तेजस्वी ने लालू प्रसाद यादव की छवि से खुद को दूर करने के लिए चार बड़े कदम उठाए. पहला, उन्होंने लालू यादव को राजद के प्रचार अभियान से लगभग बाहर कर दिया. दूसरा, उन्होंने हर परिवार के लिए एक सरकारी नौकरी का बड़ा वादा किया. तीसरा, उन्होंने कांग्रेस पर खुद को गठबंधन का चेहरा घोषित करने का दबाव बनाया. चौथा, तेजस्वी ने प्रचार के दौरान अपनी भाषा में कभी भी अपना संतुलन नहीं खोया.
लेकिन दूसरी ओर, राजद ने अपने लगभग 40 प्रतिशत टिकट यादव उम्मीदवारों को दिए, जिससे यह संदेश गया कि पार्टी अभी भी जाति-आधारित राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है. चुनाव के दौरान, मूल समर्थकों (यादवों) ने बार-बार 1990 के दशक की यादों को ताज़ा किया, जिससे तेजस्वी की नई छवि धूमिल हुई, और शेष मतदाता एनडीए की ओर झुक गए.
क्या तेजस्वी “विरासत के जाल” से मुक्त हो पाएंगे?
तेजस्वी के सामने एक कठिन चुनौती है: अपने मूल समर्थकों (यादवों) को नियंत्रित करते हुए, अपने मूल वोट बैंक को नाराज़ किए बिना अन्य समुदायों का विश्वास जीतना. अगर वह इस संतुलन को बनाए रखने में नाकाम रहे, तो पारिवारिक विवाद, भ्रष्टाचार के आरोप और नेतृत्व के सवाल निकट भविष्य में भी उनका पीछा करते रहेंगे.
बिहार की बदलती राजनीति तय करेगी कि तेजस्वी इस जाल से मुक्त होकर अपनी नई पहचान बना पाएँगे या विरासत के भंवर में ही फँसे रहेंगे.

