Dhurandhar Trailer: आज के समय में लोगों के पास रुकने का पेशेंस बहुत कम है. हर दिन सैकड़ों वीडियो, रील्स और पोस्ट उसकी स्क्रीन से गुजर जाते हैं. ऐसे में किसी फिल्म के पास खुद को साबित करने के लिए सिर्फ कुछ मिनट होते हैं. यही कुछ मिनट होते हैं – ट्रेलर. ट्रेलर अब सिर्फ फिल्म की झलक नहीं रहा. वो ये तय करता है कि लोग थिएटर तक जाएगें या नहीं. जब बॉक्स ऑफिस का भरोसा कमजोर हो, बड़ी फिल्मों को भी लगातार स्क्रीन मिलना मुश्किल हो और छोटी फिल्मों को मौका ही न मिले, तब ट्रेलर ही फिल्म की सबसे मजबूत आवाज बन जाता है.
राजीव चूड़ासामा, जो MA+TH एंटरटेनमेंट नाम की कंटेंट मार्केटिंग एजेंसी चलाते हैं, साफ कहते हैं कि अब फिल्म के पहले दिन की कमाई बहुत हद तक ट्रेलर पर निर्भर करती है. इसलिए जिम्मेदारी सिर्फ डायरेक्टर और प्रोड्यूसर की नहीं रहती, एडिटिंग रूम तक फैल जाती हैय
धुरंधर का ट्रेलर क्यों अलग नजर आया
जब धुरंधर का ट्रेलर रिलीज हुआ, तो कुछ ही घंटों में वो चर्चा का विषय बन गया. चार मिनट से ज्यादा लंबा होने के बावजूद लोगों ने उसे देखा, उस पर बात की और उसे समझने की कोशिश की. आम तौर पर इतने लंबे ट्रेलर लोगों को बोर कर देते हैं, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ.
डायरेक्टर आदित्य धर और उनकी टीम ने ऐसा ट्रेलर बनाया जो कहानी को साफ-साफ नहीं बताता. लोगों को सब कुछ समझा देने के बजाय, उसे सोचने की जगह दी गई. ट्रेलर में किरदार दिखते हैं, लेकिन उनका आपसी रिश्ता साफ नहीं होता. हैरानी की बात ये भी रही कि फिल्म के मेन एक्टर रणवीर सिंह ट्रेलर के आखिरी हिस्से में ही दिखाई देते हैं, जबकि आम तौर पर हीरो को शुरुआत में दिखाया जाता है.
ट्रेलर की कोई तय लंबाई नहीं होती
वॉरियर्स टच एजेंसी के साहिल कजाले मानते हैं कि ट्रेलर की लंबाई से ज्यादा जरूरी है कि वो ध्यान बांध पाए. उनके मुताबिक, एक मिनट का ट्रेलर भी थका सकता है और चार मिनट का ट्रेलर भी दर्शक को अपने साथ बहा ले जा सकता है, अगर उसमें दम हो.
धुरंधर के ट्रेलर ने पुराने नियमों को तोड़ा. न कोई साफ तीन हिस्सों वाली बनावट, न पूरी कहानी का खुलासा. बस माहौल, किरदार और एक बेचैनी, जो दर्शक को आखिर तक रोके रखती है.
आवाज और संगीत की अहमियत
ट्रेलर में जो सबसे ज्यादा असर डालता है, वो है आवाज. साहिल कजाले कहते हैं कि एक ही सीन, अलग-अलग साउंड के साथ बिल्कुल अलग महसूस हो सकता है. धुरंधर के ट्रेलर में आखिर में आने वाली कव्वाली की हल्की सी झलक लोगों को चौंका देती है और रुकने पर मजबूर करती है. ट्रेलर में लास्ट 1 मिनट के लिए रणवीर सिंह दिखें, लेकिन फिर भी ट्रेलर दमदार था.
कई बार ट्रेलर के लिए खास तौर पर आवाज या डायलॉग तैयार किए जाते हैं.जैसे जब तक है जान के ट्रेलर में शाहरुख खान की आवाज में कविता, जिसने पूरे ट्रेलर की दिशा तय कर दी. फिर वॉर 2, जहां किरदारों की आवाजें ट्रेलर की रीढ़ बनीं.
क्या दिखाना है, क्या छुपाना है
ट्रेलर बनाते समय सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि कितना बताया जाए और कितना छुपाया जाए. कुछ फिल्मों में कहानी ही दर्शक को खींच लेती है, तो कुछ में ट्विस्ट सबसे बड़ी ताकत होता है, जिसे बचाकर रखना पड़ता है.
राम-लीला जैसे ट्रेलर में दुनिया, टकराव और किरदारों को साफ ढंग से पेश किया गया, जबकि केनेडी या रमन राघव 2.0 जैसे ट्रेलर ज्यादा किरदारों के अंदरूनी सफर पर टिके रहे.
ट्रेलर बनाना सबसे मुश्किल काम
राजीव चूड़ासामा के मुताबिक, ट्रेलर काटना फिल्म बनाने के सबसे मुश्किल हिस्सों में से एक है. इसमें बहुत सारी राय आती हैं, बहुत सारे लोग शामिल होते हैं. आखिर में फैसला किसी एक की समझ और अनुभव पर टिकता है.
उनका कहना है कि ट्रेलर सिर्फ रचनात्मक काम नहीं है, इसमें समझ, अनुभव और थोड़ा विज्ञान भी शामिल होता है. सही संतुलन बन जाए, तो ट्रेलर न सिर्फ फिल्म की पहली छाप बनता है, बल्कि दर्शक को थिएटर तक खींच भी लाता है.