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आखिर क्यों बिहार लेबर टेस्ट बन गया, क्या है इसके पीछे की वजह?

बिहार कभी इंडस्ट्रियल रूप से मजबूत था, पर राजनीतिक अस्थिरता, अपराध, कमजोर प्रशासन और झारखंड अलग होने से उद्योग बंद होते गए. आज सिर्फ मामूली उद्योग बचे हैं और राज्य लेबर स्टेट बन गया है.

Published by sanskritij jaipuria

आज के समय में बिहार की स्थिति ये है कि पूरे देश में चल रही इंडस्ट्रियल यूनिट में से केवल लगभग 1.34 प्रतिशत इकाइयां ही राज्य में बची हैं. आजादी के बाद बिहार को देश के सबसे व्यवस्थित प्रशासन और मजबूत अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में गिना जाता था, लेकिन समय के साथ वही बिहार अब लेबर स्टेट के नाम से जाना जाने लगा है. सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक समृद्ध और तेजी से आगे बढ़ता राज्य धीरे-धीरे इंडस्ट्रियल पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया?

आजादी के बाद बिहार की मजबूत शुरुआत

देश की आजादी के बाद बिहार का नाम अग्रणी राज्यों में लिया जाता था. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, जो राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे, ने आधुनिक बिहार की बुनियाद रखी. उनके कार्यकाल में शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, कृषि और उद्योग के क्षेत्रों में काफी प्रगति हुई. उसी समय बिहार में कई बड़े उद्योग स्थापित किए गए-

 बरौनी में रिफाइनरी
 बरौनी और सिंदरी में खाद कारखाने
 हटिया (रांची) में भारी उद्योग (एचईसी)
 बोकारो में स्टील प्लांट
 बेगूसराय और पतरातू में पावर प्लांट
 चीनी मिलें और सीमेंट कारखाने

इन इंडस्ट्रियों ने हजारों लोगों को रोजगार दिया और बिहार देश के इंडस्ट्रियल नक्शे पर एक मेन स्थान बना पाया.

वर्तमान में चल रहे इंडस्ट्रियों की स्थिति

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, फिलहाल बिहार में तीन हजार से ज्यादा छोटी और मध्यम लेवल की फैक्ट्रियां मौजूद हैं. इनमें लाखों लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं. राज्य में कई इंडस्ट्रियल क्षेत्रों का विकास किया गया है.

 मुजफ्फरपुर, हाजीपुर और पटना के बिहटा में टेक्सटाइल, रबर, फुटवियर और फूड प्रोसेसिंग की कंपनियां काम कर रही हैं.
 बिहटा में ड्राई पोर्ट शुरू होने के बाद औद्योगिक गतिविधियों में कुछ बढ़ोतरी भी हुई है.
 नई इंडस्ट्रियल नीतियों के तहत निवेशकों के लिए कई तरह की सहूलियतें दी गई हैं.

इसके बावजूद, विकसित भारत के इंडस्ट्रियल मानचित्र में बिहार का योगदान बेहद कम रह गया है.

विकास के लिए सबसे बड़ा रोड़ा

बिहार की गिरती इंडस्ट्रियल स्थिति का सबसे बड़ा कारण लंबे समय तक चली राजनीतिक अस्थिरता मानी जाती है. 1961 में डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के निधन के बाद राज्य में राजनीतिक बदलावों की रफ्तार तेज हो गई.

लगातार मुख्यमंत्री बदलते रहे

1961 से 1990 के बीच कुल 23 मुख्यमंत्री बदले.
1967 से 1972 के बीच सिर्फ पांच वर्षों में नौ सरकारें बनीं और गिरीं.

ऐसे माहौल में किसी भी सरकार के लिए लम्बी योजनाएं बनाना और उन्हें लागू करना काफी मुश्किल था. सत्ता को बचाए रखना सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई और विकास पीछे छूट गया.

दल-बदल और गुटबाजी

1967 के बाद पहली बार कांग्रेस का एकाधिकार टूटा और फिर राजनीतिक अस्थिरता और बढ़ गई. लगातार होने वाले दल-बदल के कारण सरकारें बार-बार गिरती रहीं. 1985 से 1990 तक कांग्रेस शासन में ही चार मुख्यमंत्री बने, जिससे साफ होता है कि प्रशासनिक निरंतरता कितनी कमजोर थी.

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अस्थिरता का सीधा असर उद्योगों पर

जब सरकारें स्थिर न हों, प्रशासन कमजोर हो जाए और योजनाएं बार-बार रुक जाएं, तो इंडस्ट्रियल-धंधे पनप नहीं सकते. 1950 से 1980 के बीच बिहार में नए उद्योग लगभग ना के बराबर लगे. पुराने उद्योग धीरे-धीरे बीमार घोषित होने लगे और बंद होने की कगार पर पहुंच गए.

1967 के बाद से बिहार की प्रति व्यक्ति आय लगातार गिरती चली गई. 1981 तक बिहार की औसत प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम रह गई थी. केंद्र और राज्य सरकारों के बीच का टकराव भी लगातार बढ़ता गया, जिसका असर योजनाओं और उद्योगों पर पड़ा.

झारखंड अलग होने का प्रभाव

साल 2000 में झारखंड बनने पर बिहार के हाथ से खनिज संपदा का बड़ा हिस्सा चला गया. इससे राज्य के पास वे प्राकृतिक संसाधन नहीं बचे जिन पर आधारित उद्योग लगाए जा सकें. 90 के दशक में अपराध और भ्रष्टाचार का लेवल भी काफी बढ़ गया. उद्योग चलाना मुश्किल होने लगा और निवेशक बिहार आने से कतराने लगे.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जब प्रशासनिक ढांचा कमजोर हो जाता है, तो उसका असर न सिर्फ तत्काल बल्कि आने वाले लंबे समय तक आर्थिक विकास पर पड़ता है.

मढ़ौरा और मोकामा की पहचान क्यों मिट गई?

कभी मढ़ौरा, मोकामा और फतुहा जैसे क्षेत्र इंडस्ट्रियल केंद्र माने जाते थे; लेकिन धीरे-धीरे इनकी चमक पूरी तरह फीकी पड़ गई. मोकामा को कभी ‘बिहार का कोलकाता’ कहा जाता था. यहां मैकडॉवेल की शराब फैक्ट्री, बाटा की जूता फैक्ट्री, स्पिनिंग मिल और भारत वैगन जैसी बड़ी यूनिट थीं.

लेकिन अपराध के बढ़ते मामलों और प्रशासनिक हस्तक्षेप के कारण एक-एक कर सभी फैक्ट्रियां बंद होती गईं. मैकडॉवेल की फैक्ट्री 2016 में शराबबंदी के बाद बंद हो गई. बाटा की फैक्ट्री अपराध और अस्थिर माहौल के कारण पहले ही बंद हो चुकी थी. मालगाड़ी के डिब्बे बनाने वाली भारत वैगन 2017-18 में पूरी तरह बंद हो गई.

मढ़ौरा की चार फैक्ट्रियां भी इतिहास बन गईं

90 के दशक की शुरुआत में मढ़ौरा में चार बड़े उद्योग थे: मॉर्टन फैक्ट्री, सारण इंजीनियरिंग वर्क्स, चीन मिल और उससे जुड़ी डिस्टिलरी. मॉर्टन कंपनी ने 1929 में यहां फैक्ट्री खोली थी, जो टॉफी और अन्य उत्पादों के लिए प्रसिद्ध थी. बाद में ये बिड़ला समूह के पास चली गई, लेकिन 1997 में इसे भी बंद कर दिया गया.

बिहार लेबर स्टेट क्यों बना?

जब उद्योग बंद होते गए और नए उद्योग नहीं लगे, तो रोजगार के अवसर भी कम होते गए. परिणामस्वरूप, लाखों लोग रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों- जैसे दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात में जाने लगे. धीरे-धीरे बिहार का नाम औद्योगिक राज्य से बदलकर लेबर आपूर्ति करने वाले राज्य के रूप में जाना जाने लगा. ये बदलाव केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी बड़ा प्रभाव छोड़ गया.

क्या आगे कोई सुधार संभव है?

हाल के वर्षों में राज्य सरकार ने कुछ प्रयास किए हैं जैसे नई औद्योगिक नीति, स्टार्टअप को बढ़ावा, इंडस्ट्रियल एरिया का विस्तार, जिलों में छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन लेकिन इन कदमों का असर अभी सीमित दिखाई देता है.

बिहार की औद्योगिक स्थिति सुधारने के लिए सबसे जरूरी है- मजबूत और स्थिर राजनीतिक माहौल, प्रशासनिक पारदर्शिता, अपराध पर नियंत्रण, व्यवस्थित बुनियादी ढांचा और निवेशकों के लिए सुरक्षित वातावरण.

 

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