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Explainer: मंदिर में जूते-चप्पल उतारकर क्यों जाना चाहिए? जानिए इसका धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

Temples: भारतीय मंदिरों में प्रवेश से पहले जूते-चप्पल उतारने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. आमतौर पर इसे केवल धार्मिक नियम या परंपरा मान लिया जाता है, लेकिन इसके पीछे गहरा वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तर्क भी छिपा है. यह नियम न सिर्फ आध्यात्मिक अनुशासन सिखाता है, बल्कि शरीर और मन दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है.

Published by Shivi Bajpai

Temples: भारतीय मंदिरों में प्रवेश से पहले जूते-चप्पल उतारने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. आमतौर पर इसे केवल धार्मिक नियम या परंपरा मान लिया जाता है, लेकिन इसके पीछे गहरा वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तर्क भी छिपा है. यह नियम न सिर्फ आध्यात्मिक अनुशासन सिखाता है, बल्कि शरीर और मन दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है.

सबसे पहले स्वच्छता और ऊर्जा संतुलन की बात करें. जूते-चप्पल बाहर की धूल, गंदगी और कीटाणु अपने साथ लाते हैं. मंदिर जैसे पवित्र और शांत स्थान में इन्हें बाहर रखना वातावरण को स्वच्छ बनाए रखने में मदद करता है. वैज्ञानिक दृष्टि से स्वच्छ स्थान मानसिक शांति और एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं. जब आसपास का वातावरण साफ और व्यवस्थित होता है, तो मन भी स्वाभाविक रूप से शांत होने लगता है.

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मंदिर में नंगे पांव जाने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है?

नंगे पांव चलने का वैज्ञानिक लाभ भी महत्वपूर्ण है. पैरों में हजारों नर्व एंडिंग्स होती हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों से जुड़ी होती हैं. जब हम मंदिर के ठंडे फर्श पर नंगे पांव चलते हैं, तो यह एक प्रकार का प्राकृतिक रिफ्लेक्सोलॉजी प्रभाव पैदा करता है. इससे रक्त संचार बेहतर होता है, तनाव कम होता है और शरीर का संतुलन सुधरता है. आधुनिक विज्ञान इसे “ग्राउंडिंग” या “अर्थिंग” से जोड़ता है, जिसमें धरती के संपर्क से शरीर में जमा अतिरिक्त तनाव और नकारात्मक ऊर्जा कम होती है.

मानसिक अनुशासन और ध्यान में सहायता भी इस परंपरा का एक बड़ा उद्देश्य है. जूते उतारना एक प्रतीकात्मक क्रिया है, जो यह संकेत देती है कि हम बाहरी दुनिया की भागदौड़, अहंकार और व्यस्तता को बाहर छोड़कर भीतर प्रवेश कर रहे हैं. यह छोटा-सा कर्म मन को यह संदेश देता है कि अब समय शांति, प्रार्थना और आत्मचिंतन का है. इससे मानसिक विकर्षण कम होते हैं और ध्यान केंद्रित करने में आसानी होती है.

इसके अलावा, मंदिरों का शांत और ध्वनिहीन वातावरण भी इस नियम से जुड़ा है. जूतों के साथ चलने से होने वाली आवाजें ध्यान भंग कर सकती हैं. नंगे पांव चलना स्वाभाविक रूप से गति को धीमा करता है, जिससे व्यक्ति अधिक सजग और शांत रहता है.

इस प्रकार, मंदिरों में जूते न पहनने की परंपरा केवल आस्था तक सीमित नहीं है. यह स्वच्छता, शरीर-विज्ञान, मानसिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक अनुशासन का सुंदर समन्वय है. जब परंपरा और विज्ञान साथ चलते हैं, तो उनका प्रभाव कहीं अधिक गहरा और लाभकारी बन जाता है.

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परंपरा से परे वैज्ञानिक सोच

अक्सर यह माना जाता है कि मंदिरों में जूते उतारने की परंपरा केवल धार्मिक आस्था पर आधारित है, लेकिन गहराई से देखने पर यह एक सुविचारित वैज्ञानिक अभ्यास भी प्रतीत होता है. प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जीवनशैली के नियम इस तरह बनाए कि वे शरीर, मन और वातावरण तीनों के लिए लाभकारी हों. मंदिरों में प्रवेश से पहले जूते उतारना उसी समग्र सोच का हिस्सा है, जो व्यक्ति को बाहरी दुनिया से भीतर की यात्रा के लिए तैयार करता है.

ग्राउंडिंग से तनाव में कमी

विज्ञान के अनुसार, जब हमारा शरीर सीधे धरती के संपर्क में आता है, तो उसे “ग्राउंडिंग” कहा जाता है. मंदिरों में संगमरमर या पत्थर के फर्श पर नंगे पांव चलने से शरीर में जमा इलेक्ट्रोस्टैटिक चार्ज संतुलित होता है. इससे कोर्टिसोल जैसे तनाव हार्मोन का स्तर घट सकता है और व्यक्ति अधिक शांत महसूस करता है. यही कारण है कि कुछ मिनट नंगे पांव चलने के बाद मन हल्का और स्थिर लगने लगता है.

इंद्रियों का संतुलन और सजगता

जूते पहनने से पैर बाहरी संवेदनाओं से कट जाते हैं, जबकि नंगे पांव चलने से स्पर्श की अनुभूति बढ़ती है. यह संवेदनात्मक जागरूकता मस्तिष्क को वर्तमान क्षण में बनाए रखती है. मंदिर जैसे शांत स्थान में यह अनुभव इंद्रियों को संतुलित करता है और व्यक्ति को अधिक सजग बनाता है. यह सजगता ध्यान और प्रार्थना के लिए अनुकूल मानसिक अवस्था तैयार करती है.

अहंकार त्याग का प्रतीक

जूते केवल सुविधा का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक हैसियत और बाहरी पहचान का भी प्रतीक होते हैं. मंदिर के द्वार पर जूते उतारना यह संदेश देता है कि ईश्वर के सामने सभी समान हैं. यह क्रिया अहंकार और भौतिक पहचान को क्षणभर के लिए त्यागने का अभ्यास कराती है. मनोविज्ञान के अनुसार, जब व्यक्ति स्वयं को विनम्र अवस्था में रखता है, तो उसका मन अधिक ग्रहणशील और शांत होता है.

ध्यान भंग से मुक्ति

मंदिरों में शांति बनाए रखना अत्यंत आवश्यक होता है. जूतों की आवाज़, गंदगी या अव्यवस्था ध्यान को भंग कर सकती है. नंगे पांव चलना न केवल वातावरण को शांत रखता है, बल्कि व्यक्ति की चाल को भी धीमा करता है. धीमी गति से चलने पर सांसों की लय सुधरती है, हृदय की धड़कन स्थिर होती है और मन स्वतः ही ध्यान की ओर उन्मुख हो जाता है.

आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

आज के तनावपूर्ण और तकनीक-प्रधान जीवन में यह परंपरा और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है. कुछ पल नंगे पांव, शांत और स्वच्छ स्थान में बिताना एक प्रकार का प्राकृतिक “डिजिटल डिटॉक्स” भी है. यह हमें याद दिलाता है कि सच्ची शांति बाहरी सुविधाओं में नहीं, बल्कि भीतर के संतुलन में निहित है.

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Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियों का हम यह दावा नहीं करते कि ये जानकारी पूर्णतया सत्य एवं सटीक है. पाठकों से अनुरोध है कि इस लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें. Inkhabar इसकी सत्यता का दावा नहीं करता है.

Shivi Bajpai
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