Akhuratha Sankashti 2025: हर माह में संकष्टी व्रत रखा जाता है. हर माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को भगवान गणेश के लिए संकष्टी तिथि पर व्रत और पूजा-अर्चना की जाती है. पौष माह में इस व्रत को अखुरथ संकष्टी के नाम से जाना जाता है.
अखुरठा संकष्टी चतुर्थी व्रत कथा
एक समय रावण ने अपने बल के अभिमान में चूर होकर सभी देवताओं को परास्त कर दिया. तदुपरान्त उसने सन्ध्या उपासना में लीन वानरराज बालि पर भी आक्रमण कर दिया. बालि को यह वरदान प्राप्त था कि उसके सामने जो भी शत्रु आयेगा उसकी आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जायेगी. अतः बालि ने अपनी शक्ति से रावण को पराजित कर दिया और उसे अपनी काँख में दबाकर आकाशमार्ग से घूमते हुये किष्किन्धापुरी में ले आया तथा उस बन्दी रावण को अपने पुत्र अङ्गद को खिलौने के रूप में खेलने के लिये प्रदान कर दिया. अङ्गद ने रावण के गले में रस्सी डालकर उसे नगर में घुमाना आरम्भ कर दिया. लङ्कापति रावण की यह दुर्दशा देखकर सभी नगरवासी उपहास करने लगे. अपनी यह दुर्दशा देखकर रावण का अभिमान गलित हो गया तथा उसने मन ही मन अपने नाना श्री पुलस्त्य मुनि का स्मरण किया. अपने नाती की पुकार सुनकर पुलस्त्य मुनि वहाँ उपस्थित हुये तथा आश्चर्य करने लगे कि उनके शक्तिशाली नाती की ऐसी दुर्दशा क्यों हुयी है. उन्होनें रावण से उनका स्मरण करने का कारण पूछा.
रावण ने कहा – ‘हे पितामह! देवताओं को पराजित करने के कारण मुझे अभिमान हो गया था जिसके फलस्वरूप मेरी यह दुर्दशा हुयी है. मैंने पश्चिमी महासागर के तट पर सन्ध्या उपासना में लीन एक वानरराज को देखा तथा उस पर पीछे से आक्रमण करने का प्रयास किया किन्तु उसने मुझे ही बन्धक बना लिया. उसने मेरे गले में रस्सी बाँधकर अपने पुत्र को मुझसे खेलने के लिये दे दिया. मेरी इस स्थिति को देखकर समस्त जनता मेरा उपहास कर रही है. मैं अपनी इस दुर्गति से व्यथित हो गया हूँ तथा इस रस्सी ने मुझे बलहीन कर दिया है. हे प्रभो! अब मैं क्या करूँ? अब आप ही मेरी रक्षा कीजिये.’
पुलस्त्य मुनि ने कहा – ‘हे रावण! तुम चिन्तित मत हो. मैं तुम्हें अवश्य मुक्त कर दूँगा. इस बालि का जन्म देवराज इन्द्र के वीर्य से हुआ है तथा वह तुमसे अधिक पराक्रमी एवं बलशाली है. इसकी मृत्यु महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम जी के द्वारा होनी निश्चित है. हे दैत्यराज! यदि तुम बालि के बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो मेरे कथनानुसार विघ्नहर्ता गणेश जी का व्रत करो. प्राचीन काल में वृत्रासुर की हत्या के प्रायश्चित्त हेतु देवराज इन्द्र ने इस व्रत को किया था. अतः तुम भी इस संकटनाशन व्रत का पालन करो. इस व्रत के प्रभाव से शीघ्र ही तुम्हारी समस्त पीड़ाओं का शमन होगा.’ इतना कहकर ऋषि पुलत्स्य वन की ओर चले गये.
अपने नाना के आदेशानुसार रावण ने व्रत का अनुष्ठान किया. हे माते! व्रत के प्रभाव से रावण तत्काल बन्धन मुक्त हो गया तथा उसे अपना राज्यसुख पुनः प्राप्त हो गया.
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