Bihar Politics: 1970 का दशक था जब आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश नारायण (जेपी) आंदोलन ने सरकार की नींव हिला दी थी। इसी आंदोलन से उभरे थे बिहार के दो चमकते चेहर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार। यहीं से दोनों ने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। फिर दोनों एक साथ राजनीति की बुलंदियों तक पहुंचे, लेकिन धीरे-धीरे सियासत और सत्ता के दांव पेच ने दोनों की दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया। कभी एक-दूसरे के लिए लाठियां खाने वाले ये सिपाही आज एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिद्वंदी हैं। इनकी कहानी बिहार की राजनीति का ऐसा दस्तावेज है जो दोस्ती, दुश्मनी और राजनीतिक उलटफेर की मिसाल पेश करती है। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की दोस्ती और दुश्मनी बिहार की राजनीति की सबसे दिलचस्प कहानियों में से एक है। दोनों ने राजनीति की शुरुआत एक साथ की, लेकिन समय के साथ उनके रिश्तों में उतार-चढ़ाव आते रहे। आइए जानते हैं कि कैसे दोनों पहले अच्छे दोस्त बने और फिर राजनीतिक दुश्मन बन गए।
जेपी आंदोलन में पड़ी दोस्ती की नींव – 1970 के दशक में जब देश आपातकाल की ओर बढ़ रहा था, उस दौरान बिहार में जेपी आंदोलन ने एक नई राजनीतिक पीढ़ी को जन्म दिया। लालू यादव और नीतीश कुमार की मुलाकात पटना विश्वविद्यालय के गलियारों में हुई थी। लालू की बुद्धि और नीतीश की रणनीतिक सोच ने दोनों को जेपी का करीबी बना दिया। 1974 में जब भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे, तो ये दोनों युवा जेल भी गए। इस आंदोलन के दौरान, दोनों ने लाठियाँ खाईं और एक-दूसरे की ढाल भी बने। 25 जून 1975 को जब आपातकाल की घोषणा हुई, तो आंदोलन उग्र हो गया। जेपी के नेतृत्व में आंदोलन ने ज़ोर दिखाया और 1977 में देश से आपातकाल हटा लिया गया। यहीं से दोनों ने चुनावी राजनीति में कदम रखा और जनता पार्टी की जीत ने दोनों को एक राजनीतिक मंच प्रदान किया। लालू यादव की लोकप्रियता और नीतीश कुमार की कड़ी मेहनत ने उन्हें जनता दल में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
कैसे हुई दुश्मनी की शुरुआत?
1990 में जनता दल की जीत के बाद, लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने। नीतीश ने उनके लिए विधायक जुटाने के लिए दिन-रात मेहनत की। लालू की सोशल इंजीनियरिंग, खासकर मुस्लिम-यादव (एमवाई) समीकरण ने उन्हें सत्ता का बेताज बादशाह बना दिया। लेकिन सत्ता की तपिश ने दोस्ती में दरार डाल दी। लालू की जातिवादी राजनीति और नीतीश की विकास-केंद्रित सोच के बीच टकराव बढ़ता गया। 1994 में नीतीश ने जनता दल से बगावत कर समता पार्टी बनाई, जो लालू के खिलाफ खुली बगावत थी। यह पहली बार था जब दोस्ती राजनीतिक दुश्मनी में बदल गई।
1996 में चारा घोटाले ने लालू की राजनीतिक ज़मीन हिला दी। इस्तीफे के बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया, जिसे नीतीश ने भाई-भतीजावाद करार दिया। इसके बाद नीतीश कुमार ने ‘जंगलराज’ के खिलाफ सुशासन का नारा बुलंद किया और 1999 में भाजपा के साथ गठबंधन किया। 2005 में नीतीश ने लालू-राबड़ी के 15 साल के राज को जड़ से उखाड़ फेंका। सड़क, बिजली और कानून-व्यवस्था में सुधार ने नीतीश को ‘सुशासन बाबू’ की उपाधि दिलाई। दूसरी ओर, चारा घोटाले में मिली सजा ने लालू की राजनीतिक ताकत को कमजोर कर दिया। दोनों के रास्ते अब पूरी तरह अलग हो चुके थे।
महागठबंधन बना और फिर दोस्ती हुई
वर्ष 2013 में नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ लिया, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में हार ने उन्हें कमज़ोर कर दिया। 2015 में लालू और नीतीश ने भाजपा को हराने के लिए महागठबंधन बनाया। यह दोस्ती की वापसी थी, लेकिन सच तो यह था कि दोनों के बीच पुराना भरोसा अब गायब हो गया था। नीतीश फिर से मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन लालू के बेटों तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव के साथ उनका तालमेल नहीं बैठ पाया। वर्ष 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देते हुए नीतीश ने महागठबंधन तोड़ दिया और भाजपा में वापस आ गए। लालू यादव ने इसे ‘विश्वासघात’ करार दिया।
नीतीश कुमार के पलटी मारने का सिलसिला
नीतीश कुमार के पलटी मारने का सिलसिला थम नहीं रहा। वर्ष 2022 में उन्होंने फिर से भाजपा का साथ छोड़ दिया और राजद के साथ सरकार बनाई, जिसमें तेजस्वी यादव उप-मुख्यमंत्री बने। लेकिन 2024 में नीतीश एक बार फिर एनडीए में लौट आए। लालू यादव ने तंज कसते हुए कहा, नीतीश पर भरोसा नहीं रहा। तेजस्वी ने नीतीश को ‘पलटू राम’ की उपाधि दी। ये उतार-चढ़ाव बिहार की जनता के लिए सियासी तमाशा बन गए, लेकिन नीतीश की कुर्सी सलामत रही।
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बिहार की राजनीति का सबक क्या है?
आज लालू सक्रिय राजनीति से दूर हैं और तेजस्वी राजद की कमान संभाल रहे हैं। नीतीश कुमार एक बार फिर 2025 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का चेहरा बनकर सत्ता बचाने की जंग में हैं। लालू और नीतीश के बीच सियासी जंग का अगला अध्याय 2025 के चुनाव में लिखा जाएगा। बड़ा सवाल यह है कि बिहार की जनता नीतीश के चेहरे और तेजस्वी के युवा आकर्षण में से किसे चुनेगी। लेकिन एक बात तो साफ है कि लालू और नीतीश की यह कहानी साबित करती है कि राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही कोई दुश्मन। जेपी आंदोलन की आंच में शुरू हुई यह दोस्ती सत्ता की चालों में दुश्मनी में बदल गई, लेकिन बिहार की राजनीति में दोनों का नाम हमेशा गूंजता रहेगा।

