23 साल की ऐसी कहानी जब बिहार बनी बदलापुर

बिहार की क्राइम कथा (Crime Story) में सामूहिक हत्याकांड (Mass Murder) की वो कहानी, जिसने करीब दो दशक से ज्यादा वक्त तक बिहार को दहला कर रखा. 70 के दशक में बिहार की धरती जैसे किसी अघोषित युद्धभूमि (Undeclared battleground) में बदल गई थी. खेतों की मिट्टी में खून मिल चुका था, और फिजा में घुली थी बदले की हवा.

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Bihar Crime News: बिहार में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है. चुनावी मैदान में सत्ता और विपक्ष एक दूसरे को टक्कर देने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं. लेकिन, बिहार राज्य में एक समय ऐसा भी था, जहां चारों तरफ आतंक का राज देखने को मिलता था. आज भी इन कहानियों को सुनकर लोगों में डर का माहौल छा जाता है. 

साल 1977, बेलछी से भड़की थी चिंगारी:

उस समय भारत की राजनीति में इंदिरा गांधी का दौर था. बिहार की राजधानी पटना से करीब 60 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा गांव था बेलछी. जहां 17 मई साल 1977 की रात गांव में कयामत देखने को मिली था. जब पूरा गांव गहरी नींद में सो रहा था, तभी कुछ दबंग लोग हथियारों के साथ उस गांव में पहुंच गए. दबंगों ने चुन-चुनकर कुछ घरों में दस्तक दी और लोगों को बाहर बुला लिया. इससे पहले गांव के लोग कुछ समझपाते हमलावरों ने गांव के 11 दलित मजदूरों को ज़िंदा आग के हवाले कर दिया. इस दिल दहला देने वाली घटना के बाद पूरे गांव में चारों तरफ मातम छा गया. जिंदा जलते लोगों की चींख सन्नाटे को चीर रही थी. औरतों और बच्चों के रोने और चीखने की आवाज़ों ने माहौल में एक तरह का दर्द पैदा कर दिया था. 

गांव में राख हो चुके थे इंसानों के अधजले शव:

इस पूरे घटना के बाद अगली सुबह गांव में इंसानों के अधजले शव पूरी तरह से राख हो गए थे. इस सामूहिक हत्याकांड की देशभर में चारों तरफ खूब चर्चा हुई. मीडिया में ये हत्याकांड काफी सुर्खियों में था. इस दर्दनाक घटना के बाद इंदिरा गांधी खुद वारदात को देखने पहुंची थीं. पुलिस की कार्रवाई में यह सच सामने निकलकर आया कि  जमींदारों और दलित खेतिहर मजदूरों के बीच कई समय से ज़मीन को लेकर विवाद चल रहा था. यह झगड़ा देखते ही देखते नफरत में बदल गया, और अंत में दलित मजदूरों को जिंदा आगे के हवाले कर दिया गया. 

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साल 1987 – दलेलचक-बघौरा में नक्सली बदला:

10 जून साल 1987 की रात थी, जब बिहार के गया में हालात ये बन चुके थे कि अराजकता लगातार बढ़ती जा रही थी. बघौरा गांव में चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था. अचानक उसी सन्नाटे में बड़ी संख्या में गांव के अंदर घुस गए. दरअसल, ये सब लोग माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के हथियारबंद दस्ते के सदस्य थे. उन्होंने बघौरा गांव के राजपूत समुदाय के लोगों को अपना निशाना बनाया था. पहले तो सभी हमलावर घरों से निकालकर लोगों को खेत में ले गए, और फिर उनके साथ जमकर मारपीट की गई और फिर बड़ी ही बेरहमी से लोगों को काट डाला गया. उन हमलावरों ने गांव के मर्द, औरतें और यहां तक कि बच्चे तक किसी को भी नहीं बख्शा था. 

खूनी खेल का कैसे हुआ पूरी तरह से खात्मा:

लेकिन यही वो दौर था कि इस खूनी खेल का सिलसिला धीरे-धीरे थमने लगा था. इसकी एक वजह यह भी थी कि बिहार में राजनीतिक में बदलाव देखने को मिला था. जिसका असर एमसीसी और रणवीर सेना पर भी काफी हुआ था. नीतीश कुमार के शासन में इन दोनों संगठनों की कमर तोड़ दी गई. बिहार संविधान अब शांति की तरफ लौटने लगा था. साल 2000 के बाद बिहार राज्य ने काफी कुछ देखा. 

लेकिन बाद में अदालतों ने सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर दिया था. कुछ नेताओं ने इसे राजनीतिक हथियार बनाया, तो कुछ ने इसे भुला दिया. लेकिन आज भी गांव के पीड़ितों में दहशत का माहौल देखने को मिलता है. 

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