कई बार देखा जाता है कि बच्चे रिश्तेदारों या मेहमानों से बात करने में झिझकते हैं, वे मुस्कुराने या जवाब देने से भी कतराते हैं. माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा संकोची या शर्मीला है, लेकिन असल में यह एक सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा होता है. हर बच्चा अपने इमोशनल प्रोग्रेस के अलग-अलग चरण से गुजरता है. बच्चों को सामाजिक बनाना कोई मजबूरी नहीं, बल्कि एक कला है जो धीरे-धीरे सिखाई जा सकती है.
जबरदस्ती नहीं, भरोसा और सेफ का माहौल दें
अक्सर माता-पिता बच्चों से कहते हैं, बेटा नमस्ते करो, थोड़ा बात करो, या डर क्यों रहे हो? लेकिन यह दबाव बच्चों को और भी असहज बना देता है. पेरेंटिंग कोच के अनुसार, बच्चा तभी घुलता-मिलता है जब उसे माहौल सुरक्षित लगता है। सबसे पहले उसके डर या झिझक को समझें. अगर बच्चा तुरंत किसी से नहीं बोलना चाहता, तो उसे समय दें. जब आप उसके भावनाओं को स्वीकार करेंगे, तब वह खुद खुलने की कोशिश करेगा.
बच्चे के सामने खुद बनें रोल मॉडल
बच्चे वही करते हैं जो वे देखते हैं अगर माता-पिता रिश्तेदारों से प्यार और मेल-जोल से बात करते हैं, तो बच्चा भी वैसा ही व्यवहार सीखता है. जब कोई रिश्तेदार आए, तो बच्चे के सामने उनसे सहजता से बातचीत करें,उसे भी शामिल करें – जैसे चलो, मासी को बताओ तुम्हारा नया खिलौना कौन-सा है. इससे बच्चे को बातचीत में आत्मविश्वास मिलता है और उसे लगता है कि वह परिवार का अहम हिस्सा है.
खेल और कहानियों के ज़रिए सिखाएं बात करने की कला
बच्चों को बातचीत करना सिखाने का सबसे आसान तरीका है खेल और कहानियों का इस्तेमाल, उनसे रोल-प्ले करवाएं जैसे अगर तुम चाचा से मिलो तो क्या बोलोगे? या अगर मम्मी की दोस्त आई हैं, तो उन्हें कैसे ग्रीट करोगे? यह तरीका मज़ेदार होने के साथ शिक्षाप्रद भी है, कहानियों में ऐसे पात्र जोड़ें जो आत्मविश्वासी और मिलनसार हों, बच्चे उन किरदारों से प्रेरणा लेते हैं.
उनके भावनाओं की इज़्ज़त करें, हर बच्चे की सिखने की अपनी स्पीड होती है
हर बच्चा अलग होता है कोई तुरंत घुल-मिल जाता है, तो कोई थोड़ा समय लेता है, माता-पिता का काम है धैर्य रखना और बच्चे की गति का सम्मान करना. अगर बच्चा चुप है, तो उसे शर्मीला कहकर लेबल न करें। ऐसा करने से उसका आत्मविश्वास टूट सकता है, इसके बजाय, जब भी बच्चा कोई छोटा कदम उठाए जैसे नमस्ते करना, मुस्कुराना या दो शब्द बोलना तो उसकी सराहना करें.

