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MP कार्तिकेय शर्मा ने राज्यसभा में वंदे मातरम पर दिया जोरदार भाषण, यहां जानें क्या कुछ कहा?

Kartikeya Sharma on Vande Mataram: राज्यसभा सांसद कार्तिकेय शर्मा ने आज यानी बुधवार (10 दिसंबर, 2025) को राज्यसभा में वंदे मातरम के 150 साल पूरे होने पर जारी चर्चा के दौरान अपनी बात भी रखी.

Published by Sohail Rahman

Kartikeya Sharma on Vande Mataram: वंदे मातरम के 150 साल पूर्ण होने पर लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा हो रही है. जिसको लेकर सभी पक्ष और विपक्ष के सांसदों ने अपनी-अपनी बातें रखीं. इसी कड़ी में आज हरियाणा से निर्दलीय राज्यसभा सांसद कार्तिकेय शर्मा  ने भी अपनी बातें रखीं. अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ एक गाने के बारे में नहीं, बल्कि एक सभ्यता के मील के पत्थर के बारे में बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जिसने भारत को राष्ट्रवाद की पहली भाषा दी. एक ऐसे बनाने वाले के बारे में जिसके योगदान को सिस्टमैटिक तरीके से नजरअंदाज किया गया.

कार्तिकेय शर्मा ने क्या-क्या कहा? (What did Kartikeya Sharma say?)

उन्होंने अपनी बात रखते हुए आगे कहा कि मैं एक ऐसे गाने के बारे में जिसे पॉलिटिकल दबाव में काट दिया गया. और आज एक सामूहिक ज़िम्मेदारी के बारे में कि जो हमारा हक़ है, उसे वापस पाएं और उसे वापस लाएं और उसे पक्का करें. जब बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में वंदे मातरम बनाया तो यह सिर्फ एक गाने के तौर पर नहीं उभरा था जो भारत को एक इलाके, एक एडमिनिस्ट्रेटिव यूनिट के तौर पर नहीं, बल्कि एक मां के तौर पर संबोधित करता था. इस एक विचार ने राष्ट्रवाद का मतलब ही बदल दिया.

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वंदे मातरम से डरते थे अंग्रेज (The British were afraid of Vande Mataram)

उन्होंने आगे कहा कि अंग्रेज वंदे मातरम से डरते थे. उन्होंने आम गानों को नहीं दबाया. उन्होंने उन विचारों को दबाया जो पॉलिटिकल चेतना जगाते थे. इसे गाने पर जुर्माना, गिरफ़्तारी, देश निकाला और बदले की कार्रवाई होती थी. फिर भी यह गाना क्लासरूम से जेलों तक, बंगाल से बाकी भारत तक और फुसफुसाहट से जंग के नारे तक पहुंच गया. 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान वंदे मातरम ने आर्थिक आत्म-सम्मान और स्वदेशी उत्पादन को और अधिक नैतिक बल दिया.

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सिर्फ हथियारों से नहीं चलती क्रांति (Revolution is not just about weapons)

इसके अलावा, कार्तिकेय शर्मा ने कहा कि क्रांतियां सिर्फ हथियारों से नहीं चलतीं. वे विचारों से चलती हैं. और वंदे मातरम हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के सबसे मजबूत विचारों में से एक था. 1937 में कांग्रेस के नेतृत्व में मुस्लिम लीग द्वारा उठाए गए विरोधों के बाद गीत को आधिकारिक तौर पर पहले दो छंदों तक सीमित कर दिया गया था. पंडित नेपरू ने खुद स्वीकार किया कि शेष छंद कुछ वर्गों को परेशान कर सकते हैं. विरोध मुस्लिम लीग से हुआ, जिसने कमजोर होने के बाद भी गीत का विरोध किया. अंतर स्पष्ट है सर. जो लोग विभाजन के पक्ष में थे, वे ही मातरम का विरोध करने वाले थे.

राष्ट्रवादी मुसलमानों ने कभी नहीं किया इसका विरोध (Nationalist Muslims never opposed it)

राष्ट्रवादी मुसलमानों ने कभी वंदे मातरम का विरोध नहीं किया. 1925 में 50 साल की उम्र में वंदे मातरम एक साम्राज्य के खिलाफ लोगों की पुकार थी. 1975 में 100 साल की उम्र में यह एक ऐसे लोकतंत्र में जी रहा था जहां स्वतंत्रता को रोक दिया गया था. गीत की त्रासदी इसके निर्माता की उपेक्षा के समानांतर है. आधुनिक बंगाली साहित्य के जनक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वास्तुकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय हमारी अकादमिक बातचीत से लगभग मिट गए हैं. 

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