Muharram 2025: मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है और इसे इस्लाम में बेहद पवित्र माना जाता है। खासकर 10वीं तारीख यानी आशूरा का दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस दिन इस्लाम के तीसरे खलीफा अली के बेटे और पैगंबर मुहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके परिवार के कई सदस्यों को कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया था। कहानी के अनुसार, 680 ईस्वी में यज़ीद ने खुद को इस्लाम का खलीफा घोषित कर दिया था और हुसैन से उसकी बैअत (समर्थन) माँगा। लेकिन इमाम हुसैन ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ खड़े रहने का फैसला किया।
खून से लथपथ हुआ था कर्बला
हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ कर्बला पहुँचे, जहाँ यज़ीद की फौज ने उन्हें घेर लिया। उन्हें पानी तक नहीं पूछा गया। कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने के बाद 10 मुहर्रम को भयंकर युद्ध हुआ और हुसैन व उनके लगभग सभी साथियों को शहीद कर दिया गया। इमाम हुसैन की शहादत अन्याय, अत्याचार और बुराई के खिलाफ लड़ने का प्रतीक बन गई। इसी वजह से मुहर्रम का महीना खासतौर पर शिया मुसलमानों के लिए शोक का महीना माना जाता है। वे इस दौरान काले कपड़े पहनते हैं, मातम करते हैं और ताजिए निकालते हैं।
मासूम पर किया जुल्म
इतना दर्द से भरा मंजर तो वो था जब यजीदी सैनिकों ने एक-एक कर हजरत इमाम हुसैन के घर वालों और उनके साथियों को बेरहमी से शहीद किया। इतना ही नहीं इस दौरान पानी बंद होने से हजरत इमाम हुसैन के खेमों में लोग प्यास से बुरी तरह मचल रहे थे। इस दौरान हजरत इमाम हुसैन के सबसे छोटे बेटे हजरत अली असगर जो सिर्फ 6 महीने के थे, उन्हें प्यास लगी। उनके होंठ प्यास की वजह से सूख गए थे। पानी के लिए हजरत इमाम हुसैन ने हजरत अली असगर को आसमान की तरफ उठाया इस दौरान यजीद के सैनिकों की तरफ से एक तीर आया और हजरत अली असगर के प्यासे गले को चीर गया।
कर्बला की जंग ने दी सीख
मुहर्रम हमें सिखाता है कि सच्चाई और इंसाफ के लिए किसी भी कीमत पर खड़ा रहना चाहिए, चाहे हालात कितने भी मुश्किल क्यों न हों। हुसैन का बलिदान इस्लाम ही नहीं, पूरी मानवता के लिए एक अमूल्य संदेश है कि अन्याय के सामने झुकना नहीं चाहिए।

