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प्राडा से लेकर गुच्ची तक, देखिए कैसे ये दुनिया के सबसे बड़े ब्रांड भारतीय कारीगरी और कला की करते हैं चोरी?

₹1000 की भारतीय चप्पल को ₹1 लाख में बेचना, या एक साधारण कुर्ते को लाखों का ‘कफ्तान’ बताना यह वैश्विक लक्जरी फैशन की एक कड़वी सच्चाई है. मिलान से न्यूयॉर्क तक के रनवे पर, महंगे ब्रांड बार-बार भारत की सदियों पुरानी कारीगरी को चुराते रहे हैं. कोल्हापुरी चप्पलें, बनारसी ब्रोकेड और पारंपरिक प्रिंट्स को ‘प्रेरणा’ बताकर बेचा जाता है, लेकिन इसे बनाने वाले गुमनाम कारीगरों को न तो श्रेय दिया जाता है, और न ही कोई कीमत।  यह सिर्फ़ डिज़ाइन की चोरी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत का विनियोग है. 

जानें, कैसे भारतीय विरोध ने लक्जरी फैशन जगत को हिलाकर रख दिया


By: Hasnain Alam | Last Updated: December 12, 2025 3:15:48 PM IST

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प्राडा (Prada)

1. प्राडा ने अपने स्प्रिंग/समर 2025 मेन्सवियर कलेक्शन में फ्लैट, ओपन-टो लेदर सैंडल प्रदर्शित किए जो भारत की पारंपरिक हस्तनिर्मित कोल्हापुरी चप्पलों से काफी मिलते-जुलते थे.

2. शुरू में कोई श्रेय न देने और अपनी नकल की गई चप्पलों को ₹1 लाख ($1,200) में बेचने पर भारी विरोध हुआ, जिसके बाद ब्रांड को सार्वजनिक रूप से भारतीय प्रेरणा को स्वीकार करना पड़ा.

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गुच्ची (Gucci)

1. इटली के लग्जरी फैशन हाउस गुच्ची पर एक भारतीय कुर्ते को "ऑर्गेनिक लिनन कफ्तान" बताकर $3,500 (लगभग ₹2.5 लाख) में बेचने के लिए आलोचना की गई थी.

2. भारतीयों ने इसे एक आम भारतीय पोशाक को एक शानदार पश्चिमी फैशन आइटम के रूप में पेश करने के कारण सांस्कृतिक विनियोग के रूप में देखा.

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लुई विटन (Louis Vuitton)

1. लुई विटन ने बनारसी ब्रोकेड रूपांकनों और कढ़ाई शैलियों जैसे क्लासिक भारतीय वस्त्रों को अपने संग्रह में शामिल किया.

2. ऐसा करते समय ब्रांड ने उनके पीछे के कारीगरों से संपर्क नहीं किया और अक्सर ये प्रयास गुप्त रखे जाते थे क्योंकि ब्रांड स्पष्ट रूप से स्रोत का नाम नहीं बताते थे.

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सब्यसाची मुखर्जी (Sabyasachi Mukherjee)

1. भारतीय डिज़ाइनर सब्यसाची मुखर्जी को एच एंड एम के साथ मिलकर 'वंडरलास्ट' नामक एक किफायती संग्रह प्रस्तुत करने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसमें सांगानेरी ब्लॉक प्रिंटिंग जैसे जीआई-टैग प्राप्त शिल्प से प्रेरित प्रिंट शामिल थे.

2. कलेक्शन तेज़ी से बिक गया, लेकिन डिजिटल प्रिंटिंग के ज़रिए बड़े पैमाने पर उत्पादन करने और कारीगरों को शामिल न करने के कारण शिल्प समुदाय को कोई सीधा लाभ नहीं मिला.