कांग्रेस ने दिल्ली में यदि मजबूती से चुनाव लड़ा तो आप को पसीने आ जाएंगे. यही वजह है कि आप संयोजक अरविंद केजरीवाल ने टीएमसी, सपा, शिवसेना यूबीटी से संपर्क साधकर कांग्रेस पर दबाव बनाने की कोशिश की और साथ में धमकी भी दी लेकिन कांग्रेस ने उसी अंदाज में जवाब दे दिया. इंडिया ब्लॉक टूट गया और भाजपा की बांछें खिल गई.
नई दिल्ली. दिल्ली चुनाव का ऐलान हो गया, भाजपा को छोड़ दें तो अधिकांश सियासी पहलवान भी मैदान में आकर डट गये हैं. भाजपा और आप एक दूसरे के प्रति हमलावर है और पोस्टर वॉर चल रहा है. आम आदमी पार्टी कांग्रेस का नाम नही ले रही है, उल्टे संदेश दे रही है कि कांग्रेस दिल्ली चुनाव में कोई मायने नहीं रखती जबकि अंदर की बात यह है कि वह भाजपा से ज्यादा कांग्रेस से डरी हुई है.
यदि कांग्रेस ने मजबूती से चुनाव लड़ा तो भाजपा बाजी मार सकती है. यही वजह है कि आप संयोजक अरविंद केजरीवाल ने टीएमसी, सपा, शिवसेना यूबीटी से संपर्क साधकर कांग्रेस पर दबाव बनाने की कोशिश की और साथ में धमकी भी दी. कांग्रेस इन दलों के दबाव के आगे नहीं झुकी और मीडिया विभाग के प्रमुख पवन खेड़ा ने भी उसी अंदाज में जवाब दे दिया कि इंडिया ब्लॉक लोकसभा चुनाव के लिए था. मतलब एकदम साफ कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के दबाव के आगे नहीं झुकेगी और दिल्ली में मजबूती से चुनाव लड़ेगी.
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि आप के सामने कांग्रेस कितनी बड़ी चुनौती है. पिछले तीन चुनावों के नतीजों और डेटा पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि 2013, 2015 और 2020 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत कांग्रेस की हार की वजह से हुई. 2011 के अन्ना आंदोलन की कोख से निकली आम आदमी पार्टी ने 2013 में पहला चुनाव लड़ा जिसमें उसे 28 सीटें और लगभग 29.49 फीसद वोट मिले थे.
कांग्रेस 43 सीटों से 8 सीटों पर सिमट गई. जो वोट शेयर 40.31 फीसदी था वह 24.55 फीसदी रह गया. भाजपा को भी करीब 3 फीसद वोटों का नुकसान हुआ लेकिन उसे 8 सीटों का फायदा हुआ और वह 23 से 31 पर पहुंच गई. बहुमत से महज 5 सीटें कम रह गई. आप ने कांग्रेस की मदद से 49 दिनों की सरकार बनाई, अरविंद केजरीवाल पहली बार सीएम बने.
2013 के बाद 2015 के चुनाव में कांग्रेस का जो बचा जनाधार था वह भी खिसक गया और उसे लगभग 15 फीसद वोट का नुकसान हुआ, कांग्रेस शून्य पर आ गई और आप 67 सीटों पर पहुंच गई. भाजपा 31 से 3 सीटों पर सिमट गई. हालांकि बीजेपी के वोट शेयर में खास बदलाव नहीं हुआ, सिर्फ 1 फीसदी वोट शेयर घटा लेकिन 28 सीटें हाथ से निकल गई.
फिर आया 2020 का चुनाव, भाजपा ने दम लगाया और कांग्रेस ने टूटे मनोबल से चुनाव लड़ा लिहाजा नतीजे भी वैसे ही आये और उसके हाथ से आधा वोट बैंक और खिसक गया और वह 5 फीसद के नीचे आ गई. आप का वोट शेयर उतना ही रहा लेकिन भाजपा का 6 फीसदी बढ़ गया और वह 38 फीसद तक पहुंच गई. सीटें मिली महज 8 जबकि 2015 में आप ने 67 और 2020 में 62 सीटें जीती.
तीनों चुनावों में तीनों ही पार्टियों के वोट प्रतिशत की बात करें तो 2013 में कांग्रेस को 24.55 फीसद, आप को 29.49 फीसद तो वहीं भाजपा के हिस्से में 33.07 फीसद वोट आए. 2015 में आप ने 54.34 प्रतिशत, भाजपा ने 32.19 प्रतिशत और कांग्रेस ने 9.65 फीसद वोट हासिल किये. 2020 के चुनाव में कांग्रेस की हालत और खराब हो गई. इस चुनाव में आप ने जहां 53.57 फीसद , भाजपा ने 38.51 फीसद वोट पाया. वहीं, कांग्रेस के खाते में वोट का हिस्सा महज 4.26 फीसद रह गया.
कांग्रेस का मानना है कि जितना नीचे जाना था वह जा चुकी. आप लगातार 10 साल सत्ता में रही और झूठे वायदे करते रही लिहाजा इस चुनाव में एंटी इनकमबेंसी फैक्टर भी काम करेगा. कांग्रेस इस उम्मीद से चुनाव लड़ रही है कि वह सीटें चाहें जितनी जीते वोट प्रतिशत का ग्राफ ऊपर जाएगा. पिछले तीन चुनावों का ग्राफ बताता है कि शुरू के दो चुनावों का उसका वोट आप की तरफ शिफ्ट हुआ जबकि 2020 में ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ.
भाजपा के सामने चुनौती है अपने वोट प्रतिशत को 40 फीसद के पार ले जाने की जबकि कांग्रेस इस बात के लिए जोर लगा रही है कि उसका जो वोट बैंक आप की तरफ शिफ्ट हुआ है उसे फिर से अपने पाले में लाया जाए. आप सत्ता बरकरार रखने के लिए संघर्ष कर रही है. ये आंकड़े बताते हैं कि आप की हार जीत भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस तय करेगी.
सपा, टीएमसी और शिवसेना यूबीटी के इंडिया ब्लॉक से अलग होकर आप को सपोर्ट करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यही बताया जा रहा है कि आप ने संदेश भेजा था कि कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ेगी तो उसे नुकसान होगा. कांग्रेस ने संदेश पर ध्यान नहीं दिया तो अलगाव हो गया. दरअसल कांग्रेस को पूरे देश में राजनीति करनी है और आप उसके वोट बैंक को लगातार हड़प रही है. दिल्ली, पंजाब और गुजरात जैसे राज्य इसके उदाहरण हैं. कोई भी राजनीतिक दल इसे बर्दाश्त नहीं करेगा. शिवसेना को बीएमसी चुनाव अकेले लड़ना था और सपा को महाराष्ट्र विधानसभा वाला हिसाब बराबर करना था, सो हो गया. लब्बोलुआब यह है कि इंडिया ब्लॉक निहित सियासी स्वार्थों के कारण टूटा है क्योंकि कोई भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ना चाहता.
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