Pashupati Paras RLJP: राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी) के प्रमुख पशुपति कुमार पारस के 14 अप्रैल 2025 को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से नाता तोड़ने के ऐलान ने बिहार की सियासत में नई हलचल पैदा की है. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले यह कदम कई सवाल उठाता है. क्या पशुपति पारस का पाला बदलना महागठबंधन के लिए फायदेमंद होगा? उनकी पार्टी की वर्तमान ताकत और दलित वोट बैंक पर प्रभाव कितना होगा?
पशुपति पारस की पार्टी की सियासी हैसियत संख्याबल के लिहाज से बेहद सीमित है. लोकसभा और राज्यसभा में शून्य प्रतिनिधित्व, 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएलजेपी को एक भी सीट नहीं मिली और उनकी पार्टी का कोई सांसद या राज्यसभा सदस्य नहीं है. बिहार विधानसभा में शून्य सीटें, आरएलजेपी का बिहार विधानसभा में कोई विधायक नहीं है. विधान परिषद में एकमात्र प्रतिनिधि, 2022 में जेडीयू-बीजेपी ने आरएलजेपी को एक एमएलसी सीट दी थी जो उनकी इकलौती सियासी उपलब्धि है.
2024 लोकसभा चुनाव में हाशिए पर चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को एनडीए ने पांच सीटें दीं. जबकि पशुपति की आरएलजेपी खाली हाथ रही. इसके बाद पशुपति ने मार्च 2024 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. इसके बावजूद पशुपति पारस ने दावा किया है कि उनकी पार्टी बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. उन्होंने 22 जिलों का दौरा पूरा कर लिया है और बाकी 16 जिलों में भी जनसंपर्क की योजना बनाई है.
पशुपति पारस की सियासी पहचान उनके बड़े भाई और दलित आइकन रामविलास पासवान की विरासत से जुड़ी है. लेकिन कई कारणों से उनकी स्वतंत्र सियासी हैसियत कमजोर है. बिहार में पासवान समुदाय (लगभग 5-6% वोट) में चिराग पासवान को रामविलास का असली वारिस माना जाता है क्योंकि बिहार के सामाजिक ढांचे में पुत्र को भाई से ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है. बीजेपी ने भी चिराग को तरजीह दी. जिसने पशुपति को किनारा कर दिया.
पशुपति ने दलितों के प्रति एनडीए की उपेक्षा का आरोप लगाया और आंबेडकर जयंती पर एनडीए से नाता तोड़ा जो दलित वोटरों को लुभाने की रणनीति थी. लेकिन उनकी पार्टी की संगठनात्मक कमजोरी और चिराग की मजबूत मौजूदगी उनकी राह में चुनौती है. आरएलजेपी का संगठनात्मक ढांचा कमजोर है और 2024 लोकसभा चुनाव में उनके चार सांसदों ने उनका साथ छोड़ दिया था.
पशुपति पारस ने भविष्य की रणनीति के बारे में स्पष्ट नहीं बताया लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साथ अपनी पुरानी दोस्ती का जिक्र किया. जनवरी 2025 में लालू उनके आवास पर दही-चूड़ा भोज में शामिल हुए थे और पशुपति ने कहा कि अगर महागठबंधन उन्हें ‘उचित सम्मान’ देता है तो वह गठबंधन पर विचार करेंगे.
पशुपति पारस के एनडीए छोड़ने और संभावित रूप से महागठबंधन में शामिल होने का बिहार की सियासत पर प्रभाव सीमित लेकिन रणनीतिक हो सकता है. बिहार में दलित वोट (लगभग 16%) कई सीटों पर निर्णायक होते हैं. पशुपति पासवान समुदाय के एक हिस्से को प्रभावित कर सकते हैं खासकर हाजीपुर, वैशाली, और समस्तीपुर जैसे क्षेत्रों में. हालांकि चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) पासवान वोटों पर मजबूत पकड़ रखती है और पशुपति का प्रभाव उनकी तुलना में कम है. पशुपति करीबी मुकाबले वाली सीटों पर महागठबंधन के लिए फायदा पहुंचा सकते हैं लेकिन वे स्वतंत्र रूप से बड़े दलित नेता के रूप में उभरने में नाकाम रहे हैं.
बिहार में कई विधानसभा सीटों पर 5,000-10,000 वोटों का अंतर निर्णायक होता है. अगर पशुपति महागठबंधन के साथ जाते हैं तो पासवान और गैर-पासवान दलित वोटों का एक हिस्सा उनकी ओर खींच सकते हैं जो एनडीए के लिए नुकसानदायक हो सकता है. उदाहरण के लिए हाजीपुर जहां पशुपति 2019 में सांसद थे. हाजीपुर में उनकी स्थानीय साख कुछ हद तक काम कर सकती है.
महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, वाम दल) पशुपति को शामिल कर दलित वोटरों को लुभाने की कोशिश कर सकता है. खासकर उन क्षेत्रों में जहां चिराग की पार्टी मजबूत है.
लालू प्रसाद यादव की रणनीति में छोटे दलों को शामिल कर गठबंधन को मजबूत करना शामिल है और पशुपति का अनुभव इसमें मददगार हो सकता है.
एनडीए के पास बीजेपी, जेडीयू, चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास), जीतन राम मांझी की हम, और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा जैसे मजबूत सहयोगी हैं. जीतन राम मांझी ने दावा किया कि पशुपति के जाने से एनडीए पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा.
प्रशांत किशोर की जन सुराज, आरसीपी सिंह की आप सबकी आवाज, और अन्य छोटे दलों की मौजूदगी बिहार में मुकाबले को बहुकोणीय बना रही है. पशुपति का प्रभाव इन दलों की तुलना में कम हो सकता है.
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